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________________ अध्यात्म के परिपार्श्व में 'भगवान महावीर ने पांच स्थावर-काय की जो बात कही, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है । स्थावर जगत् के साथ एकात्मता की अनुभूति होनी चाहिए । जैसा हमारा अस्तित्व है वैसे ही सृष्टि का अस्तित्व है, वनस्पति आदि का अस्तित्व है । जैसे-जैसे यह अनुभूति स्पष्ट और प्रखर होती चली जाएगी वैसे-वैसे हमारी जागरूकता बढ़ती चली जाएगी। जागरूक चर्या का आधार है-पूरे प्राणी जगत् के साथ एकात्मता । केवल प्राणी जगत् के साथ ही नहीं, पुद्गल जगत् के साथ भी एक विशेष प्रकार की अनुभूति होनी चाहिए। एक निर्जीव वस्तु को भी बिना मतलब इधर-उधर रखना असंयम है। जीव का असंयम होता है तो अजीव का भी असंयम होता है । भगवान् महावीर ने साधना का जीवन जिया, उसका आधार-सूत्र है'दूसरे के अस्तित्व की स्वीकृति' । पर्यावरण की चेतना में भी दूसरे के अस्तित्व की स्वीकृति है। जीवन एक-दूसरे के सहयोग पर, एक-दूसरे के उपकार-भाव पर निर्भर है । यही सह-अस्तित्व (Co-existence) है। हम जीवित रहना चाहते हैं तो संसार के अन्य जीव, पदार्थ भी जीवित तथा सुरक्षित रहना चाहते हैं। पंचशील' के सिद्धांत भी सह-अस्तित्व पर आधारित हैं। सभी सुखी रहना चाहते हैं, दुःखी होना कोई नहीं चाहता। । वास्तव में ज्ञानी होने का सार यह है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें, इतना जानना ही काफी है कि अहिंसा-मूलक समता ही धर्म है, यही अहिंसा-विज्ञान है। गीता की मान्यता है कि जो किसी को अपने व्यवहार से दुःखी नहीं करता, वही श्रेष्ठ व्यक्ति है। यहां भी अहिंसा, करुणा तथा दया का उपदेश है। महावीर ने एक सूत्र दिया-एक्का मणुस्सजाई—मनुष्यजाति एक है, फिर क्यों किसी को पीड़ा पहुंचाई जाए, सताया जाए। जब हम दया की बात करते हैं तो हमें सभी प्राणियों को आत्मतुल्य समझना चाहिए। किसी के प्रति द्वेष-भाव न रहे, यही महानता का अभिसूचक है । इसमें सर्वत्र आत्मोपम्य दृष्टि रहती है । "समणसुत्त" (५०) में कहा गया है जह ते न पियं दुक्खं, जाणिअ एमेव सम्वजीवाणं । सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ।। यानी जैसे तुम्हें दुख प्रिय नहीं वैसे ही सब जीवों को दुख प्रिय नहीं हैं-ऐसा जानकर पूर्ण आदर और सावधानी पूर्वक आत्मोपम्य दृष्टि से सब पर दया करो। यहां सब पर दया करने का आशय है मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी पर दया करनी चाहिए। गुरुनानक की दृष्टि समता भाव से संन्याप्त थी। वह किसी को भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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