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पर्यावरण संतुलन और सह अस्तित्व
४. वनस्पति का वन्य प्राणियों का विनाश-औद्योगिक क्रान्ति से प्रदूषण का हलाहल निकल रहा है।
५. भू-स्खलन-इसके कारण वृक्षों, हरियाली का सफाया होता जा है । जगह-जगह कूड़ाकरकट पड़ा रहता है औद्योगिक प्रगति ने अपशिष्टों के अम्बार लगाकर, पानी में बहाकर पर्यावरण को गंदा बना दिया है। प्रदूषण का फंदा गले में डालकर मानवजाति मर्मान्तक पीड़ा का अनुभव कर रही है, यह सर्वविदित है।
जैनधर्म में पर्यावरण पर विशेष ध्यान दिया गया है । श्रमण-श्रावक दोनों के धर्मों का वहां सम्यक् उल्लेख है। जल को छानकर पीने की पृष्ठभूमि के पीछे शुद्ध जल का प्रयोग करने की भावना है, साथ में अहिंसा की भावना भी विद्यमान है । यह समझा जाता है कि छानकर पानी न पीने से जीव हत्या होती है या होने की संभावना है, जल द्वारा सूक्ष्म कीटाणु पेट में जा सकते हैं । छानकर पानी पीना नीरोगता, अच्छे स्वास्थ्य की ओर प्रेरित होना है । हमारे औद्योगिक संयंत्रों ने जल को इतना अधिक प्रदूषित कर दिया है कि नदी, नालों, झीलों, तालाबों में जलचर मर जाते हैं। वह जल पीने में हानिकारक है । जलप्रदूषण हिंसाजनक है। साथ में असंख्य न्यूक्लियर परीक्षण भी जल को, वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। इस भयंकर स्थिति को देखते हुए यह कहने में कोई संकोच नहीं कि जल को छान कर उपयोग में लाने से बहुत हद तक जल-प्रदूषण से मुक्ति पायी जा सकती है।
पर्यावरण की चर्चा के साथ अहिंसा और दया की भावना भी सामने आती है। महावीर आत्मतुलवाद के प्रवर्तक थे। उन्होंने संयम, आचरण, करुणा, दया पर विशेष बल दिया । युवाचार्य महाप्रज्ञ ने अपनी पुस्तक “जैनधर्म : अर्हत् और अहंताएं" में एक स्थान पर लिखा है कि सृष्टि-संतुलन-शास्त्र आधुनिक विज्ञान के लिए विज्ञान की एक नई शाखा हो सकती है लेकिन एक जैन के लिए यह सिद्धांत ढाई हजार वर्ष पुराना है। सृष्टि-संतुलन का जो सूत्र महावीर ने दिया, वह आज भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने कहा-जो पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को स्वीकार करता है । अपने अस्तित्व के समान उनका अस्तित्व मानता है। हम इस तुला से तोलें तो न केवल अहिंसा का सिद्धांत ही फलित होता है अपितु पर्यावरण विज्ञान की समस्या को भी महत्त्वपूर्ण समाधान प्राप्त होता है । यह आवश्यक है-हम अहिंसा को केवल धार्मिक रूप में प्रस्तुत न करें। यदि उसे वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए तो मानव जाति को एक नया आलोक उपलब्ध हो सकता है।'
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