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________________ जैनधर्म में पर्यावरण की अवधारणा रहे हैं यह परिग्रह हानिकारक है, इसे त्यागना पड़ेगा । जैनधर्म इच्छाओं को सीमित करने का उपदेश देता है और वस्तुओं के संग्रह या परिग्रह को परिमाण में रखने की दृष्टि प्रदान करता है इसलिए प्रकृति की सम्पदा को सुरक्षित रखना होगा । हमारे औद्योगिक संस्थान प्रगति के सोपान होकर भी प्रदूषण के जनक हैं। मिलों-कारखानों से जो निरन्तर उत्पादन हो रहा है, उससे हमारे लिए सुख-सुविधाएं जुटाई जाती हैं। उनसे हमारी सम्पन्नता में वृद्धि होती है, लेकिन किसे मालूम नहीं कि परिग्रह वृत्ति ने हमारे लिए, अन्य प्राणियों के लिए कितनी समस्याएं पैदा की हैं। नदी-नालों में गले-सड़े चमड़े का अति हानिकारक गंदा जल बहता है । पानी में हानिकारक रासाय. निक तत्त्व मिले रहते हैं । हमारी परिग्रहवृत्ति इसके लिए जिम्मेदार है । वनों-वृक्षों को काटकर हम अपनी संपन्नता को बढ़ा सकते हैं, लेकिन अनेक पशु-पक्षियों को अनिकेतन बना देते हैं, वेघर बना देते हैं यह हिंसा नहीं तो और क्या है ? प्रकृति के बिना प्राणी कैसे रहेगा ? सभी जीवों, प्राणियों के साथ एकात्मकता पैदा करना, उनके अस्तित्व को स्वीकार करना अहिंसा को व्यावहारिक रूप देना है। जब संयम की बात जैनधर्म में कही जाती है तो प्रकृति के संतुलन की बात आ जाती है । प्रकृति में असन्तुलन आना, पदार्थों की स्थिति में गड़बड़ी या असन्तुलन आना पर्यावरण की समस्या पैदा कर देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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