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________________ जैनधर्म में पर्यावरण की अवधारणा ३७ तो प्रकृति के संरक्षण की बात करते हैं। पौष्टिक भोजन शाकाहार से मिलता है । कहा जाता है-जो शाकाहार करते हैं वे कैंसर से पीड़ित अपेक्षाकृत कम होते हैं। शाकाहार सात्विक भोजन है, सुपाच्य और स्वास्थ्यवर्धक है । जब शाकाहार का प्रचार-प्रसार किया जाता है तो उसके पीछे प्रकृति की सुरक्षा की भावना रहती है, संयम की भावना रहती है। पर्यावरण में संयम-संतुलन का रहना जरूरी है । असंयम के बढ़ने से संतुलन बिगड़ता है और उससे वायु जल, ध्वनि सर्वत्र प्रदूषण बढ़ने लगता है। महावीर ने इसीलिए संयम को धर्म, जीवन कहा है-संयमः खलु जीवनम् । विश्व स्वास्थ्य-संगठन ने स्वास्थ्य की परिभाषा में कहा है कि शरीर के सम्पूर्ण भौतिक, मानसिक तथा सामाजिक क्षेम-कुशल को स्वास्थ्य कहते हैं; यह केवल निरोग या बलवान् होने का नाम नहीं है । जाहिर है इस निरोगता के पीछे संयम की भावना है-संयम खाने-पीने में, सोच-विचार में, सामाजिक व्यवहार में रहेगा तो कोई प्रदूषण किसी स्तर पर नजर नहीं आएगा। जब शाकाहार की बात करते हैं तो यह ध्यातव्य है कि मांस उन्हीं पशु-पक्षी का खाया जाता है, जो शाकाहारी हैं। सिंह, बिल्ली कुत्ता आदि का मांस कोई नहीं खाता। अतः शाकाहार स्वाभाविक भोजन है । कहते हैं मनुष्य का विकास बन्दर से हुआ है । बन्दर को ही डार्विन ने अपने विकासवादी सिद्धान्त का केन्द्र माना है यानी बन्दर ही विकास प्राप्त करते-करते मनुष्य रूप में परिवर्तित हुआ है । बन्दर स्वयं शाकाहारी पशु है अतः प्रकृति से मनुष्य भी शाकाहारी है । यह कहना कि मांसाहार अधिक पौष्टिक, संतुलित, प्रोटीन-विटामिन-युक्त होता है, सरासर अज्ञानता का सूचक है । दालों में, सोयाबीन में, मूंगफली में, सेव-संतरा में क्या कम प्रोटीन एवं विटामिन होते हैं ? कहने की आवश्यकता नहीं कि शाकाहार पर्यावरण की सुरक्षा का बोध कराने वाला है। इससे जीवन में अनुशासन आता है। भोजन में भी यदि अनुशासन, संयम न रखा तो निश्चित रूप से हमारा अनिष्ट होगा। जैन मनीषियों की दृष्टि में सात्विक आहार वह है, जो जीवन तथा अनुशासन में सहायक हो, जो मादक न हो, जो कर्तव्य-विमुख न बनाए । सात्विक आहार यानी सात्विक जीवन और सात्विक जीवन यानी पर्यावरण का शुद्ध-स्वच्छ होना । पर्यावरण का सम्बन्ध अध्यात्म से भी है। किसी नदी के किनारे, वृक्ष के नीचे, वन-कन्दरा में हमारे ऋषि-मुनि ध्यान करते थे, आध्यात्मिक साधना में लीन रहते थे। प्राचीनकाल में हमारे यहां वृक्ष की पूजा की जाती रही है। कुछ वृक्षों, पत्तों, फलों, को हम देवता पर चढ़ाते रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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