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________________ जैनधर्म में पर्यावरण की अवधारणा विश्व में पर्यावरण को लेकर सभी देशों में एक चेतना पैदा हो रही है। चेतना है जल, वायु, ध्वनि, पृथ्वी की शुद्धि की। जहां तक पर्यावरण की शुद्धि का प्रश्न है, प्राणिमात्र के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। आज न जल शुद्ध मिल रहा है, न वायु शुद्ध मिल रही है । जिधर देखो धुएं के अम्बार लगे हुए हैं, जहरीली गैस हवा में घुली है। औद्योगिकीकरण के बढ़ते चरणों ने पानी तक को प्रदूषित कर रखा है, जिससे जलचर मरते जा रहे हैं। यह विनाशलीला नदी-नाले, तालाबों के अशुद्ध, गैसमिश्रित जल में देखी जा सकती है। विज्ञान में पर्यावरण के लिए 'इकोलॉजी' शब्द आया है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रकृति के सभी पदार्थ एक-दूसरे पर निर्भर हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं । वे 'इंटरडिपेंडेंट' हैं। जहां कोई एक पदार्थ प्रकृति के या अपने स्वभाव के विपरीत जाता दिखाई पड़ा कि प्रकृति में असन्तुलन पैदा हो जाता है, जो अतिवृष्टि, बाढ़, भूचाल, प्रचण्ड गर्मी आदि के रूप में भयानक हानि लेकर आता है। सभी वस्तुएं अपने-अपने स्वभाब में रहकर सक्रिय रहें, उनमें सामंजस्य तथा संतुलन बना रहे तो हमारा पर्यावरण खराब नहीं होगा। पर्यावरण का अर्थ है सह-अस्तित्व । सभी वस्तुएं एक-दूसरे की सहयोगी बनी रहें, सभी एक-दूसरे की परिपूरक बनी रहें। अहिंसा का विज्ञान यही है कि संसार में सभी प्राणी जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता, सब सुख प्राप्त करना चाहते हैं. दुःख कोई नहीं चाहता। यानी सभी को इस संसार में जीने का हक है । हमें क्या जरूरत है अपने सुखार्थ दूसरे प्राणी की जान लेने की ? हम यह क्यों भूल जाते हैं कि हमारे कारखानों, मिलों से जो गंदा, प्रदूषित जल या जहरीली गैस निकली है वह पशु-पक्षियों, मनुष्यों के लिए हानिकारक है। नदियों में इतना सड़ा जल बहकर आता है कि मछलियां मरी हुई ऊपर तैरती दिखाई देती हैं। १९८२ में भोपाल में जहरीली गैस के रिसने से बीस हजार से अधिक लोगों के मारे जाने, प्रभावित होने के समाचार मिले । अनेक तो जीवन भर के लिए अपंग हो गए, नेत्रों की ज्योति खो बैठे, मस्तिष्क विकृत हो गए। प्रकृति में संतुलन बना रहे, यही पर्यावरण है, फिर कोई आपदा नहीं आयेगी। उमास्वाति ने विज्ञान युग से पहले ही एक सूत्र 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' में लोगों को पर्यावरण की चेतना प्रदान की थी और उसे व्यापक आयामों में प्रस्तुत किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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