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________________ कबीर की शाकाहारी दृष्टि ३ गाय के विषय में कबीर कहते हैं कि गाय घास खा कर, जल पी कर, बछड़े के लिए दूध देती है । बछड़ा सिर मार कर गाय को कष्ट दे कर दूध पीता है। उधर मनुष्य बछड़े को दूध न दे कर खुद ही पी जाता है । इस प्रकार गाय को शक्तिहीन बना देता है। गाय के चमड़े का जुता, मशक तक बनाने से वह नहीं चूकता। मनुष्य के इस मिथ्याचार पर उन्होंने तीव्र व्यंग्य किया है। कबीर के सामने सकल समाज था; हिन्दू, मुसलमान, जैन, ब्राह्मण सभी थे । वे जिसमें कुछ कदाचार/पापाचार देखते, खुल कर कहते । बड़े ही 'बलंट' थे कबीर । काजी और जैन साधु के विषय में उनकी यह 'रमैनी देखने योग्य है काजी सो जो काया विचार, तेल दीप मैं बाती जार। तेल दीप मैं बाती रहै, जोति चीन्हि जे काजी कहै ।। मुलनां बंग देइ सुर जानीं, आप मुमला बैठा तानी। आपुन मैं जे करै निवाजा, सौ मुसलमां सरबत्तरि गाजा।। जोगी भसम कर मौ मारी, सहज गहै बिचार बिचारी । अनभै घट परचा सूं बोलै, सो जोगी निहचल कदे न डोलै ।। जैन जीव का करहु उबारा, कोण जीव का करहु उधारा । काजी वह कहलायेगा, जो शरीर-रूपी दीपक में परमात्मा की स्नेहवर्तिका रख कर अलख ज्योति को पहचानने में ज्योतिर्मय परमात्मा को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। बिना अर्थ हृदयंगम किये कुरान का पाठ करने वाला मनुष्य काजी नहीं कहला मकता । जिसका रोम रोम परमात्मा के नाम से स्पंदित होता है, वही काजी है। जो निर्भय है, समता-भाव में रहता है, वही सच्चा योगी है। उस व्यक्ति को कबीर जैन साधु मानने को तैयार हैं, जो जीवों की रक्षा करता है, जीवों पर उपकार करता है । जीवों की रक्षा करना उन्हें, सुख-शांति पहुंचाना, उन्हें निर्भयता प्रदान करना जैन साधु का, सभी मनुष्यों का परम धर्म है । कबीर ने समता की बात कहकर यह दर्शाया है कि मनुष्य अपने प्राणों के समान दूसरों के प्राणों को भी समझे । संसार में कौन ऐसा प्राणी होगा, जो सुख प्राप्त करना नहीं चाहता ? मरने से सब दुःखी होते हैं, इसलिए हम किसी जीव के प्राण क्यों हरें ?भगवान् महावीर कहते हैं, 'कोई दुःख नहीं चाहता; इसलिए किसी को दुःख मत पहुंचाओ। इसी दयाभाव को अहिंसा कहते हैं । तुम्हें इतना समझ लेना ही काफी है। अहिंसा के लिए समता और समता के लिए अहिंसा का ज्ञान आवश्यक है; यही मानव ज्ञान की अर्थवत्ता है।' समता जैनधर्म की रीढ़ है, उसका मेरुदण्ड है । आज यदि हम संसार की समस्याओं का निदान खोजना चाहें तो उसे समता में खोजना चाहिये। जो भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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