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कबीर की शाकाहारी दृष्टि
कबीर (१३९८-१४९५) वैष्णव स्वभाव के कवि थे। अन्य संतात्माओं के समान वे भी पूर्ण अहिसा में विश्वास रखते थे । जीवों पर दया करना, उन्हें किसी प्रकार को कष्ट न देना कबीर की प्रकृति में शामिल था । उन्होंने भले ही किसी पाठशाला में विधिवत् शिक्षा नहीं पायी; लेकिन उनके अनन्त ज्ञान का सागर बड़े-बड़े विद्वानों, पण्डितों को चुनौती देता है । किसमें इतनी सामर्थ्य है जो उसका संतरण कर सके ? उनकी अपरिग्रही दृष्टि और अहिंसाप्यायित प्रकृति उन्हें महावीर का अनयायी सिद्ध करती है । वे जन्मना जैनी न सही, कर्मणा जैनी अवश्य थे। महावीर ने अपनी प्रथम देशना में कहा था कि जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है, वही सत् है-'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' (तत्त्वार्थसूत्र ५-३०) । संसार की प्रत्येक वस्तु स्वभावत परिवर्तनशील है, वह क्षण-प्रतिक्षण बदलती रहती है । सत् का पूर्णतः विनाश नहीं होता । परिवर्तन असत् का होता है, उसका उत्पाद नहीं होता। वस्तु के मूल-रूप में परिवर्तन नहीं होता। जड़ को चेतन का रूप नहीं दिया जा सकता । संसार नित्य परिवर्तनशील है-'सम्यक् सरति इति संसार' । जनदर्शन में संसार की अनित्यता का विशद वर्णन किया गया है, इसी को 'अनित्याशरण संसार' कह कर अनुप्रेक्षा का एक रूप माना गया है । कबीर बार-बार संसार की, प्राणी की अनित्यता का बखान करते रहे हैं
जे ऊग्या सो आंथवे, फूल्या सो कुम्हलाय । जो चिणियां सो ढहि पडै, जो आया सो जाय ।।
जो पहर्या सो फाटिसी, नांव धर्या सो जाइ । जो इस नश्वर संसार में उदित होता है, उसका अस्त होना अनिवार्य है। जो फूल खिलता है वह अवश्य मुरझाता है। जिस भवन का निर्माण होता है एक दिन वह विध्वंस को प्राप्त होता है । जिस नवीन वस्त्र का आज धारण करते हैं, वह दूसरे दिन फट जाता है, यही संसार की अनित्यता है। कविवर पन्त ने भी इसी अनित्यता को निम्न पंक्तियों में शब्दायित किया है
यही तो है असार संसार, सृजन, सिंचन, संहार ! आज सर्वोन्नत हर्म्य अपार, रत्न दीपावली मंत्रोच्चार, उलूकों के कल भग्न विहार, झिल्लियों की झनकार ।
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