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महावीर और कबीर की अहिंसादृष्टि आक्रमण नहीं करना चाहिए । आक्रान्ता होना क्षम्य नहीं, लेकिन यदि कोई आपके देश पर आक्रमण करता है, शत्रु देश-सीमा पर अतिक्रमण करता है, चोर-डाकू हमारे घर में बलपूर्वक घुसता है तो हमें उसको रोकना चाहिए । असल में हिंसा तो राग-द्वेष-जनित होती है, इसी को 'संकल्पी-हिंसा' कहा जाता है। महावोर ने इसी प्रकार की हिंसा को गृहस्थ या श्रावक के लिए पाप माना है। हिंसा से यथासम्भव बचना सभी के लिए आवश्यक है।
कबीर ने काम, क्रोध, लोभ से सावधान रहने का बार-बार आदेश दिया है
१. काम, क्रोध, लोभ, मोह बिबरजित हरिपद चीन्है सोई । २. काम, क्रोध, तिसनां के मारे बूडि मुएहु बिनु पानी।
वे आगे कहते हैं कि ऐसा साधु बनने का क्या लाभ, जो अपनी वाणी पर भी नियंत्रण न रख सके । वाणी द्वारा दूसरों की हिंसा करने वाला साधुसज्जन नहीं कहा जा सकता
साधु मया तो क्या भया, बोलै नांहि विचारि । हत पराई आत्मा, जीम बांधि तरवारि ।।
मनुष्य को समस्त प्राणियों के प्रति दयालु रहना चाहिए। किसी रूप में कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। निरवैर, निरहंकारी रहना ही अहिंसक होना है, संत या सज्जन होना है । यथा
निरबैरी निहकामता, सांई सेतो नेह ।। विखया सौ न्यारा रहे, संतनि का अंक एह ।
कबीर कहते हैं कि दूसरों की हिंसा करके अपने को पालना जीवन की निष्फलता है । मनुष्य से उसके द्वारा की गई जीव-हत्या का जब लेखाजोखा मांगा जायेगा तब कौन उसकी रक्षा करेगा ? कौन उसके पापों का भागी बनेगा ? जीव-हत्या हिंसा है, अधर्म है, इसका लेखा-जोखा तो व्यक्ति को स्वयं देना होगा ही। यथा
जीअ जू मारहिं जोर करि कहते हैं जु हलाल । जब दफ्तरि लेखा मांगि है तब होइगा कौन हवाल । जोर किया सो जुलुम है लेई जवाब खुदाई । दफ्तरि लेखा नीकसै मारि मुहै मुहिं खाई।
कबीर ने मांस का क्रय-विक्रय करने, जीव-हत्या करने को महापाप माना है । उन्होंने चींटी से हाथी तक को ईश्वर का प्राणी मानकर सब पर दया करने का उपदेश दिया है। ईश्वर को तो अपने सभी प्राणी प्रिय हैं, जो इन प्राणियों को कष्ट देगा या उनकी हत्या करेगा, उसकी कभी मुक्ति नहीं होगी। यथा
“सबै जीव सांई के प्यारे उबरहुगे किस बोलै ।"
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