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________________ २८ अध्यात्म के परिपाखं में बोलने का आदेश दिया। प्रिय वचन बोलना भी अहिंसा है, प्रियवचन औषधि का काम करते हैं, जबकि कटु बचन तीर, शल्य के समान घाव करने वाले होते हैं मधुर वचन है औषधी, कटुक वचन है तीर । श्रवण द्वार ह्व संचर, सालै सकल शरीर ॥ कबीर जब 'प्रेम के ढाई आखर' पढ़ने की बात कहते हैं तो भी अहिंसा भाव को प्रकट करते हैं । वे किसी भी रूप में तन-मन-वचन से किसी को कष्ट देना नहीं चाहते । महावीर की अहिंसा की भावना को कबीर ने पूर्णतः आत्मसात् किया था । कबीर जब कहते हैं १. सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । हंसत - हंसत । आदि न अन्त । २. दोष पराये देखि के, चले ३, अपने याद न आवई जिनका ४. लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर । यहां सर्वत्र महावीर की अहिंसा-दृष्टि से लेकर अपरिग्रह दृष्टि की स्पष्ट छाप नजर आती है । महावीर ने कहा कि जीव का वध करना अपना ही वध करना है, जीवों पर दया करना अपने पर दया करना है । जैसे दुःख तुम्हें प्रिय नहीं वैसे ही किसी प्राणी को दुख प्रिय नहीं, अतः सब पर आत्मौपम्य दृष्टि रखकर दयाभाव रखना चाहिए । यथा - 'जीव ही अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । ता सव्व- जीवहिंसा परिच्चत्ता अत्तकामेहि ॥ 'जह ते न पिअं दुक्खं जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं । सव्वायरमुवउत्तो अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥ महावीर ने रागादि की अनुत्पत्ति को अहिंसा और रागादि की उत्पत्ति को हिंसा माना है । मैं समझता हूं यही अहिंसा की मूल भावना है, यानी राग हिंसा है, विराग अहिंसा है । राग या आसक्ति ही हिंसा है, यही परिग्रह है । परिग्रह में हिंसा है क्योंकि उसमें राग है, मूच्र्छा है । ममत्वं रागसम्भूतं वस्तुमात्रेषु यद् भवेत् । साहसाऽऽसक्तिरेषैव जीवोऽसौ वध्यतेऽनया ॥ हिंसा तीन प्रकार की माना गई है - आरम्भी, विरोधी और संकल्पी । कृषि, रक्षा, व्यापार शिल्प तथा जीविका के लिए की गई हिंसा कोआरम्भी सकता । चूंकि कर्म से मुक्त हिंसा कहते हैं । गृहस्थ इस हिंसा से बच नहीं होना मुश्किल है, इसलिए कर्म के साथ हिंसा तो रहेगी ही । लेकिन गृहस्थ को मांस, शराब अण्डे आदि से बचना चाहिए । 'विरोधी हिंसा' में आक्रमणकारी का बल पूर्वक विरोध किया जा सकता है । यह मान्य है कि मनुष्य को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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