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महावीर और कबीर की अहिंसादृष्टि
अहिंसा लक्षणोधर्म स्तितिक्षालक्षणस्तथा । __ यस्य कष्टे धृति स्ति, नाऽहिंसा तत्र सम्भवेत् ।।
जो व्यक्ति अहिंसा को जानता है वह दूसरों को कष्ट न पहुंचा कर स्वयं अनेकों कष्टों, परीषहों को सहन करता है । वह सदा अप्रिय तथा कटु वचनों को सहन करता है, प्रिय तथा अप्रिय दोनों उसके लिए समान होते हैं । अहिंसक व्यक्ति की दृष्टि समदृष्टि होती है । यथा
अप्रिया सहते वाणी, सहते कर्म चाप्रियम् ।
प्रियाप्रिये निविशेषः समदृष्टि रहिंसकः ।। भगवान् महावीर कहते हैं कि मनुष्य के ज्ञानी होने का सार यह है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । अहिंसामूलक समता ही धर्म है।
एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचण ।
अहिंसासमयं चेव, एयावंतं बियाणिया ।।
कबीर एक वैष्णत सन्त थे । वह अहिंसा के प्रचारक और मांसाहार के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हिन्दु-मुसलमान दोनों की हिंसा-भाव की खुलकर निन्दा की है । एक स्थान पर वे कहते हैं
मांस मांस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय । आंख देखि जे खात हैं, ते नरकहिं जाय ।। बकरी पातो खात है ताकी काढी खाल । जो नर बकरी खात है ताको कौन हवाल ।। दिन भर रोजा रहत हैं, राति हनत है गाय ।
यह तो खून वह बंदगी कैसे खुशी खुदाय ।।
कबीर ने बुराइयों, पाखण्डों, हिंसा-भाव एवं मिथ्याडम्बरों का डट कर विरोध किया। हिन्दू समाज में प्रचलित कर्मकाण्ड तथा बलिप्रथा उन्हें प्रिय नहीं थी। अस्पृश्यता के वे विरोधी थे। वे जात-पात को नहीं मानते थे।
महावीर और कबीर ने आत्मजागृति पर बल दिया है। वे आत्मशुद्धि तथा आत्म-प्रकाश द्वारा मनुष्य को अज्ञानांधकार से, कुवृत्तियों से, लोभ तृष्णा से, आसक्ति से ऊपर उठाना चाहते थे। 'पापी पूजा वैसि करि भखै मांस मद दोई' जैसी बात कबीर के अहिंसामय हृदय से ही निकल सकती थी। वह वैष्णव धर्म-मार्ग के पथिक थे, किसी प्राणी को कष्ट देना उन्हें प्रिय नहीं था। वे तो सदा दूसरों के मार्ग को फूलों से भर देना चाहते थे। वे बुराई का बदला भी भलाई से देते थे यथा
जो तोको कांटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।। तोहि फूल के फूल हैं, वाको है तिरसूल ।। उन्होंने किसी को कष्ट देने की बात नहीं सोची, सदैव प्रिय वचन
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