________________
महावीर और कबीर की अहिंसादृष्टि
महावीर और कबीर - दोनों का व्यक्तित्व बड़ा ही क्रान्तिकारी था । दोनों रूढ़ियों, आडम्बरों और कर्मकाण्ड के विरुद्ध थे, जाति-भेदभाव के विरोधी थे और मानवता की एकता में विश्वास करते थे । महावीर अहिंसा के महान् उपदेष्टा थे । उनको अहिंसा दृष्टि बहुत व्यापक है । उसमें मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी सम्मिलित हैं । महावीर प्राणीमात्र के प्रति अहिंसाभाव, दयाभाव तथा करुणा भाव रखते थे । अपने ऊपर उन्होंने अनेक परीषह और उपसर्ग सहन किये, परन्तु कभी किसी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं दिया । महावीर समता-पथ के पथिक थे, वहां सबके साथ समानता का व्यवहार किया जाता था । आत्मौपम्य दृष्टि सम्पन्न थे महावीर । फिर वहां चाहे चण्डकौशिक विषधर हो या कोई दुर्दैत्य हो या कोई ग्वाला | उनके हृदय में कभी किसी के प्रति कोई द्वेष, घृणा नहीं थी । वह तो राग-द्वेष, घृणा - क्रोध, मोह-माया सबसे ऊपर उठ चुके थे । वे पूर्णतः जितेन्द्रिय थे, जिनेन्द्र थे, वीतरागी और स्थितप्रज्ञ कर्मवीर थे । उन्होंने अहिंसा को केन्द्र में रखकर अपने उपदेश दिये हैं ।
जीवन में अहिंसा के फूल खिलें, अहिंसा की सुगन्ध से कोना-कोना महके तो यह संसार, यह धरती स्वर्ग बन सकती है । सभी धर्म-ग्रन्थों में अहिंसा की महिमा का आलोक पन्ने पन्ने पर बिखरा है । सन्तों की वाणी अहिंसा की वाणी होती है, उनका लोकाचार अहिंसामय होता है । महाभारत में कहा गया है'
'अहिंसा परम धर्म है, परम दान है, परम दम है, परम यज्ञ है, परम सुख है, परम तीर्थ है। वास्तव में प्राणीमात्र पर दया भाव रखने वाला और मांस न खाने वाला व्यक्ति ही दीर्घायु को प्राप्त होता है, वही निरोग तथा सुखी रहता है ।' महावीर ने अपने पांच अणुव्रतों- महाव्रतों में अहिंसा को सर्वोपरि स्थान दिया है । अहिंसा में जैनधर्म की सकल अर्थवत्ता तथा मूल्यवत्ता समाहित है । महावीर-धर्म की आधारशिला अहिंसा है । यही मनुष्य का स्वधर्म है, आत्मा की यही अनुत्तरावस्था है। महावीर ने अहिंसा को धर्मं का प्रथम लक्षण कहा है और तितिक्षा या सहिष्णुता को दूसरा लक्षण बताया है । यथा -
१. महाभारत, अनुशासन पर्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org