SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ अध्यात्म के परिपाव में प्रदूषण से आक्रान्त हैं । प्रदूषण का प्रकोप भी हिंसाजनित है। जहां मनुष्य अपने अस्तित्व के साथ वनस्पति का, पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं का, पक्षियों का अस्तित्व भी स्वीकारता है, उनके साथ सद्व्यवहार करता है, उनका संरक्षण करता है वहां मनुष्य तथा प्रकृति में सन्तुलन बना रहता है। प्रकृति और मनुष्य के बीच संतुलन बिगड़ने का अर्थ है प्रदूषण । जहां प्रकृति तथा मनुष्य में संतुलन बिगड़ता है वहां हिंसा का रूप देखा जा सकता है। वृक्षों-वनों के संरक्षण का दावा सरकार खूब करती है, लेकिन उनकी कटाई बन्द नहीं हुई । जब वृक्ष-वन काटे जाते हैं तो उससे हमारा पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित होता है। क्या जीव-जन्तुओं के विश्रामस्थलों को नष्ट करना हिंसा नहीं ? पक्षियों के, पशु-शावकों को कष्ट पहुंचाना हिंसा नहीं तो और क्या है ? हम जब धर्माचरण की बात करते हैं तो बाह्याडम्बरों में उलझे रहते हैं, कितने लोग हैं जो धर्म के आन्तरिक रूप को त्याग, तप को, सेवा-भाव को अंगीकार करते हैं। हम दूसरों से लेने में, छीनने-झपटने में सुख-आनन्द महसूस करते हैं, आत्मतृप्ति महसूस करते हैं। मानवेतर जीवधारियों की सेवा करने का व्रत लेकर अहिंसा-धर्म का अनुपालन करना हम भूल गये हैं। अब तो मनुष्यों की रिश्वत देकर सेवा की जाती है, करायी जाती है । भ्रष्टाचार ने समाज को पतित कर डाला है। नौकरियों की प्राप्ति रिश्वत के बूते पर सहज हो गई है। एक स्कूल में ट्रेंड ग्रेजुएट के पद के लिए चालीस हजार रु० दान दिया जाता है। ऐसा एक नहीं, कई संस्थानों में देखा जा सकता है। यह भ्रष्टाचार आर्थिक हिंसा है, यही परिग्रह कहा जायेगा। अर्थतंत्र का साम्राज्य है सर्वत्र और अर्थ के पीछे सभी परिक्रमा करते हैं; हम हमारे जीवन-मूल्य अर्थ के पीछे मूक बने चलते रहते हैं। अहिंसा जीवन में उतारने का, व्यवहार में लाने का सिद्धान्त है, इसे शास्त्रों-आगमों या वाणी का विलास नहीं माना जा सकता । हमारे जीवन को शान्तिमय बनाने के लिए, विश्वशान्ति की प्राप्ति के लिए अहिंसा के अलावा दूसरा मार्ग नहीं । खाड़ी-युद्ध ने जो विनाश-लीला की है वह सुविदित है। ऐसा विध्वंस तो द्वितीय विश्वयुद्ध में भी नहीं हुआ होगा जहां एक दिन में सैकड़ों वायुयान हजारों बम गिराएं तो वहां के विनाश की सहज ही कल्पनो की जा सकती है । हिंसात्मक प्रवृत्ति का ही परिणाम था यह युद्ध । अनेकान्त दृष्टि या वैचारिक अहिंसा से काम लिया जाता तो युद्ध से जरूर बचा जा सकता था। भारतीय धर्मों में अहिंसा की महत्ता का सर्वत्र प्रतिपादन किया गया है। अधर्म को, अन्याय को, अत्याचार को नष्ट करने के लिए हिंसा का सहारा भी लिया गया है। रामायण, महाभारत में राक्षसों को, अत्याचारियों को, अन्याय करने वालों को मारने को उचित ठहराया गया है । ऋग्वेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy