SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म के परिपार्श्व में अमृतत्वं विषं याति सदैवामृतवेदनात् । शत्रुमित्रत्वमायाति मित्रसंवित्ति वेदनात् ।। अर्थात् सदा अमृतरूप में चिन्तन करने से विष भी अमृत बन जाता है। मित्र-दृष्टि से देखने पर शत्रु भी मित्ररूप में बदल जाता है। महावीर स्वामी की अहिंसक एवं मैत्रीपूर्ण दृष्टि चण्डकौशिक जैसे भयंकर विषधर को पराजित कर देती है। अहिंसा और मानवता में कोई भेद नहीं; दोनों एकदूसरे के पर्याय हैं । भला जो चीज हम दे नहीं सकते, उसे लेने का हमें क्या अधिकार है ? क्या कोई किसी मनुष्य या प्राणी की जान लेकर पुनः उसे लौटा सकता है ? कभी नहीं। जब हम किसी के प्राण लौटा नहीं सकते तो उन प्राणों को छीनने का अधिकार हम कैसे ले सकते हैं ? अहिंसा हमें लेना नहीं, देना सिखाती है और जीवन का माहात्म्य लेने में नहीं देने में है, त्याग और बलिदान में है । अहिंसा मनुष्य को आत्मौपम्य दृष्टि प्रदान करती है । गीता में कहा गया है कि आत्मौपम्य दृष्टि से जो सबको एक-सी दृष्टि से देखता और सोचता है कि जिस वस्तु में मुझे सुख मिलता है उसमें दूसरे को सुख मिलेगा और जिससे मुझे दुःख होगा उससे दूसरे को भी दुःख होगा, वही परम योगी है; फिर हम आत्मा के प्रतिकूल आचरण क्यों करें ? आत्मौपम्य दृष्टि भी अहिंसा है। यह हमें सभी प्राणियों के प्रति समानआत्मवत् आचरण करने की अभिप्रेरणा देती है। आत्मा का विस्तार मानवता का विस्तार है, अहिंसा का विस्तार है, मैत्री का विस्तार है'वसुधैव कुटुम्बकम्' तथा 'सह-अस्तित्व' का विस्तार है। इस विस्तार में संकीर्णता आयी तो हिंसा, संघर्ष, द्वन्द्व, रक्तपात का ताण्डव-नृत्य होने लगता है । अहिंसा मानवता का अभ्युत्थान कर उसे उस स्थान पर ले जाती है, जहां वह दूसरों को अपने समान महत्त्वपूर्ण समझने लगता है-यही आत्मा का विस्तार है। फारूक आजम एक राजा से मिलने जा रहे थे। उनके साथ उनका सेवक था। फारूक आजम स्वयं राजा (खलीफा) थे और कभी नौकर, कभी स्वयं ऊंट पर बैठे चले जा रहे थे । बारी-बारी बैठते थे। जब गन्तव्य के निकट पहुंचे और वहां राजा अपने सभासदों मंत्रियों के साथ उनके स्वागतार्थ खड़े थे, तब ऊंट पर चढ़ने की बारी सेवक की आ गयी। सेवक ने सम्मानार्थ स्वामी फारूक आजम से कहा कि उधर सामने राजामंत्री खड़े हैं, मेरा ऊंट पर बैठना ठीक नहीं-शिष्टाचार के विरुद्ध है; लेकिन फारूक आजम ने सेवक की एक न सुनी और उसे ऊंट पर बैठाया, स्वयं रस्सी पकड़कर आगे-आगे चलते रहे । यही आत्मौपम्य-दृष्टि है, अहिंसा-दृष्टि है। अहिंसा का सम्बन्ध मूलतः भावना से है, यही भावना बाद में कर्म में परिणत होती है। इसमें सभी की, सब प्रकार से कल्याण-कामना सन्निहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy