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________________ अहिंसा की भावभूमि कायल होना पड़ेगा, उसकी अन्तनिहित शक्ति को स्वीकारना होगा। एक स्थान पर फारसी के प्रसिद्ध शायर शेखसादी फरमाते हैं तरीकत बजुज खिदमते खल्क नेस्त । बतस्बीह ब सजादह व दल्क नेस्त । अर्थात् खुदा का सामीप्य खुदा की बनायी सृष्टि-प्राणियों की सेवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं । यह मार्ग न माला फेरने से मिलता है, न सज्जादनशीं होने से मिलता है और न गुदड़ी-कंथा पहनने से मिलता या तय होता है। यहां महत्त्वपूर्ण बात जीवों के प्रति सेवा-भाव है, प्रेम-भाव है । जो ईश्वर की बनायी सृष्टि से प्रेम नहीं कर सकता, वह ईश्वर से कैसे प्रेम करेगा? ईश्वर से प्रेम करने का सीधा रास्ता सेवा-मार्ग है, सेवा-धर्म है। जब प्रेम-सेवा-भाव नहीं तो 'तेरा-मेरा मनुवा कैसे एक होय रे ?' (कबीर)। स्पष्ट है तेरे-मेरे मन को एकता में बांधने का काम सेवा-प्रेम के धागे ही कर सकते हैं और ये धागे कच्चे सूत के नहीं होते, पक्के-रेशमी होते हैं; अतः अहिंसा की भाव-भूमि सेवा और प्रेम के मार्ग पर चलने से प्राप्त होती है । यही प्रेम और सेवा-भाव है, जिसके बदले में इकबाल 'शाने खुदाबन्दी' भी लेने को तैयार नहीं। कहते हैं मकामे बन्दगी देकर न लूं शाने खुदाबंदी।। जब मनुष्य में प्रेम या सेवा के भाव उत्पन्न होते हैं तो उसका सारा 'अहं' नष्ट हो जाता है। अहंभाव पतन की, संघर्ष और हिंसा की आधारभूमि है । देखते हैं कि जो पर-सेवा-निरत रहते हैं, दूसरों पर प्रेम-दृष्टि रखते हैं उनका स्वभाव नम्र से नम्रतर और बाद में नम्रतम हो जाता है । मनुष्य खुदा के प्रेम में डूबा हुआ है, रात-दिन उसकी सेवा में अभिरत रहता है । शैतान उसकी इस अपार नम्रता को देखकर आश्चर्यान्वित हो जाता है; क्योंकि उसकी हिंसा का जादू उस पर कारगर नहीं होता । अब क्या करे शैतान ? खुदा से कहता है-''ए खुदा ! मैं तो आदम की संगति में रहकर खराब हो गया, उसने एक दिन भी मेरा मुकाबला न किया। हर कदम पर मेरे आगे अस्त्र डाल दिये । ए खुदा ! मैं अपनी पूर्व-बंदगी का वास्ता देता हूं तू मुझे उसकी संगति से मुक्त कर दे।" यही नहीं, शैतान आदम के सामने भी गिड़गिड़ाता है-"ए आदम (मानव) ! तू मुझे इस आग से भी छुटकारा दे, जिससे मैं जल रहा हूं-पथ-भ्रष्ट करने की अग्नि से । शिकारी उसी समय तक जाल फैलाता है, जब उसे विश्वास हो कि शिकार फंस सकता है। यदि शिकार सावधान हो जाए, मनुष्य सचेत हो जाए, आत्मज्ञानी बन जाए तो कोई उसे अपने जाल में कैसे फंसा सकता है ? प्रेम या मैत्री में जो आकण्ठ डूबा हो, उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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