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________________ १६ अध्यात्म के परिपार्श्व में अपने को ब्राह्मण मानकर दूसरे को शूद्र समझकर मनुष्य का अनादर करना कितना घिनौना और पापमय है ! अपनी जाति को, धर्म को दूसरी जाति या धर्म से श्रेष्ठतर समझना, दूसरों को घृणा की दृष्टि से देखना भी परिग्रह है । इसे हम 'जाति का परिग्रह' कहेंगे, 'धर्म का परिग्रह' कहेंगे। जाति और धर्म के परिग्रह से कितना अनिष्ट हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं । हरिजनों, गड़रियों आदि के घरों में आग लगाई जाती है, उन्हें जीवित आग में फेंका जाता है। हिन्दू मुसलमानों के साम्प्रदायिक दंगे अलीगढ़, मुजफ्फर नगर, संभल, जमशेदपुर आदि में जो गतवर्षों में हुए, वे सभी धर्म और जाति के आधार पर हुए। उस समय मालूम नहीं वह पाशविक और राक्षसीवृत्ति हमारे अन्दर कहां से आ जाती है ? हम क्यों भूल जाते हैं कि हम पैगम्बर मोहम्मद, गौतम, महावीर, नानक के अनुयायी हैं, जिन्होंने अहिंसा, शान्ति, प्रेम और भाईचारे का संदेश सकल विश्व को-संपूर्ण मानवता को दिया । महावीर ने अपने युग में जातीय एवं वर्ग एकता पर बल दिया, उनके 'समवशरण' में विभिन्न वर्गों, जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोग एक साथ बैठ कर प्रवचन-लाभ प्राप्त करते थे । उनके युग में भी शूद्र और चाण्डाल थे। उन्होंने हरिकेशी जैसे चाण्डाल को सहर्ष गले लगाया । समाज में दास प्रथा का उच्छेदन उन्होंने किया । चन्दनबाला को श्रमण धर्म में दीक्षित कर नारी जाति का सम्मान बढ़ाया, उसे एक परिग्रह की वस्तु नहीं समझने दिया। आज तक हमारे यहां बन्धक मजदूरों की प्रथा रही, नारी को तो आज भी परिग्रह की वस्तु, भोग-विलास की सामग्री माना जाता है । महावीर ने उपदेश दिया था-"मनुष्य के द्वारा मनुष्य को दास बनाया जाना बन्द होना चाहिए । कितनी बर्बर और असभ्य बात है कि मनुष्य मनुष्य को दास बनाये ! संसार के सभी प्राणी स्वतंत्र हैं, कहीं भी कोई प्राणी किसी को दास नहीं बना सकता। यह दासता या दासप्रथा प्राणों की मूल सत्ता के प्रति चुनौती है और उसके मूल में व्यक्तित्व का हनन है।' उमास्वाति ने मूर्छा को परिग्रह कहा है ; अर्थात् वस्तु के प्रति मनुष्य का ममत्व ही परिग्रह है। ममत्व में मनुष्य की दृष्टि 'स्व' पर ही केन्द्रित रहती है । अतः परिग्रह में दृष्टि की संकीर्णता है, उदारता नहीं। हम अपने लिए ही सब कुछ करते हैं, दूसरों के लिए कुछ नहीं कर पाते, एक प्रकार से परिग्रहांध होकर हम उस सांप के समान हो जाते हैं, जो अपनी केंचुली में लिपटा अंधा और अशक्त बना रहता है। हमें परिग्रह की केंचुली को उतारना होगा, अपनी दृष्टि, विचार और ज्ञान को सम्यक् बनाना होगा । परिग्रहांध होकर हम आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त नहीं कर सकते, जिसके द्वारा हम अपने व्यक्तित्व का, आत्मा का विकास करते हैं। महावीर एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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