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________________ अपरिग्रह : वर्तमान संदर्भ में १५ में अंधे लोगों को सोचना चाहिए कि यह भौतिकता हमारा कितना अनर्थ कर रही है । हमें धर्म और अध्यात्म के मार्ग से विचलित करने वाली यही भौतिकता है, परिग्रहवृत्ति है । हमें पशु-वृत्ति की ओर ले जाने वाली यही परिग्रह वृत्ति है । हमें घोर हिंसक, क्रूर मनुष्य बनाने वाली यही परिग्रह वृत्ति है । कहीं बोनस के लिए सरकारी कर्मचारी, मिल मजदूर हड़ताल करते हैं तो कहीं दिनदहाड़े बसों को लूटा जाता है महिलाओं के आभूषण छीने जाते हैं, करों की चोरी की जाती है, तस्करी की जाती है, वस्तुओं में मिलावट की जाती है, अनुचित तरीके अपनाकर अथवा घूंस लेकर धन एकत्रित किया जाता है । लोगों की त्यागवृत्ति संग्रहवृत्ति में, प्रेमभावना घृणा में और मानवता दानवता में बदल गई है । हम आत्मिक सम्पदा से खाली हैं । महावीर ने मनुष्य की मुक्ति के लिए 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' का मूलमंत्र दिया । दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी प्रवाहित कर मानवता के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया । मुक्ति का यह मार्ग सभी व्यक्तियों एवं राष्ट्रों के लिए उपयोगी है, अनुकरणीय है । इन तीन रत्नों की प्राप्ति के लिए हमें मनसागर का मंथन करना होगा, अहिंसा और अपरिग्रह के दोनों नेत्रों से समान रूप में प्रत्येक वस्तु का पुनराविष्करण करना होगा । महाभारत में आया है कि व्यक्ति तप से ब्राह्मण बनता है, जाति निर्मूल और अकारण है । जयघोष मुनि ने कहा था- 'कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य और शूद्र होता है, जन्म से नहीं ।' यही बात हजारों वर्ष पूर्वं महावीर ने कही कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । इस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ उत्तराध्ययन, २५/३१ भगवान् महावीर ने मात्र बाह्य वेश धारण करने वालों पर तीक्ष्ण प्रहार करते हुये कहा था - केवल सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने और कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता, अपितु समभाव की साधना करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना - मनन करने से मुनि होता है, तप का आचरण करने से तापस होता है न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो || समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो || Jain Education International - - उत्तराध्ययन, २५ / २६-३० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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