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अध्यात्म के परिपावं में
वाद है । हम अपने प्रजातन्त्र को, समाजवादी समाज-रचना को धर्मनिरपेक्षता की भावना को यदि सुदृढ़ रूप देना चाहते हैं, उसे अधिकाधिक लोक हितकारिणी बनाना चाहते हैं, तो हमें महावीर के अनेकांतवाद के रास्ते पर ही चलना होगा। अलग-अलग मत मतांतरों और दुराग्रहों की दीवारों को तोड़ना होगा, तभी हम महावीर के अविभाज्य व्यक्तित्व को सम्यक् रूप में देख सकते हैं। महावीर के पास कौन-सा देवालय या चैत्य था ? आत्मधर्म के लिए, आत्मशोधन के लिए न किसी देवालय की जरूरत है और न किसी चैत्यालय की। जहां विचारों में, मतों में आग्रह होता है, वहां न केवल संघर्ष जन्म लेता है वरन् द्वेष, घृणा, क्रोध और हिंसा का उदय भी होता है। सत्य किसी एक धर्म, जाति या राष्ट्र की पूंजी नहीं। व्यक्ति संप्रदाय सत्य के नूतन गवाक्षों को खोलकर समाज और मानवता को गौरवन्वित कर सकता है। अनेकांतवाद भारत जैसे धर्म निरपेक्ष राज्य के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसकी प्रासंगिकता से कौन मुंह मोड़ सकता है ? महावीर के इस बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक मूल्य को अपनाकर हम न केवल अपने प्रजातन्त्र को धर्मनिरपेक्षता की भावना को मजबूत बना सकते हैं, किन्तु मानव-कल्याण के लिए सह-अस्तित्व एवं विश्व-शांति के पथ को भी प्रशस्त बना सकते हैं । संघर्षों, दुराग्रहों, शोषणों, तनावों, मत-मतांतरों के सागर को हमें एक साथ मिलकर मथना होगा, तभी अनेकांतवाद का अमृत हाथ लग सकता है। व्यापक सहिष्णुता से अभिमंडित होने के कारण अनेकांतवाद भारतीय संस्कृति का उज्ज्वल वैशिष्टय है।
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