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________________ अनेकान्तवाद : आधुनिक संदर्भ में ११ शब्द प्रयुक्त किया जाता है । यदि एक व्यक्ति के भिन्न-भिन्न छवियों में 'स्टेप' उठाये जाएं तो ये तमाम फोटो भिन्न होकर भी 'स्यात् यह ठीक है', इस प्रकार देखने से रुचिकर, सन्तोषप्रद और ग्राह्य होंगे । विभिन्न अपेक्षाओं, दृष्टिकोणों या मनोवृत्तियों से जो एक ही तत्त्व के नाना दर्शन फलित होते हैं उन्हीं के आधार पर 'भंगवाद' की सृष्टि होती है । जिन दो दर्शनों के विषय ठीक एक-दूसरे से बिल्कुल विरोधी जान पड़ते हों, ऐसे दर्शनों का समन्वय बतलाने की दृष्टि से उनके विषयभूत भाव अभावात्मक दोनों अंशों को लेकर उन पर जो संभावित वाक्यभंग बनाये जाते हैं वे ही सप्तभंग हैं, जिनका आधार नयवाद और ध्येय समन्वय है । 'भंग' का अर्थ है भाग, लहर, प्रकार आदि । 'भंग' से तात्पर्य वचन के उस आधार से है जो वस्तु का स्वरूप बताता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि किसी भी पदार्थ के विषय में जो बात कही जा सकती है वह सात प्रकार से कही जा सकती है, यही सप्तभंगी है - स्वचतुष्टयादिरतः 'स्यादस्ति स्यान्नास्त्यपेक्षक्रमात् । तत्स्यादस्ति च नास्ति चेति युगपत् सा स्यादवक्तव्यता ॥ तद्वत् स्यात् पृथगस्ति नास्ति युगपत् स्यादस्तिना स्वाहिते । वक्तव्ये गुणमुख्यमावनियतः स्यात् सप्तमं गोविधिः ॥ ( श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्रम् १० ) सप्तभंगी विधि इस रूप में है : - ( १ ) स्यात् अस्ति ( २ ) स्यात् नास्ति, (३) स्यात् अस्ति नास्ति ( ४ ) स्यात् अवक्तव्य ( ५ ) स्यात् अस्तिअवक्तव्य ( ६ ) स्यात् नास्ति अवक्तव्य ( ७ ) स्यात् अस्ति नास्ति - अवक्तव्य | वास्तव में प्राचीनकाल में आत्मा आदि के विषय में नित्यत्व- अनित्यत्व, सत्व असत्व, एकत्व - बहुत्व, व्यापकत्व - अव्यापकत्व आदि के आधार पर परस्पर विरोधी मतों को समन्वित करने के लिए 'सप्तभंग' की कल्पना की गयी । चूंकि सात से अधिक वाक्यभंगियां संभव नहीं हैं अतः सप्तभंग यानी सात की संख्या का ही निर्धारण किया गया । सप्तभंगित्व पारस्परिक मत वैभिन्य का परिहार कर एक सर्वग्राह्य बुद्धिगम्य सत्यानुगामिनी अभिव्यक्तिशैली है । सत्यान्वेषक के सत्य की खोज इसी सिद्धांत से होती है । दुराग्रहपूर्वक अपना मत दूसरे पर थोपने से काम नहीं बनेगा । प्रजातन्त्र हो या समाजवाद, इनका समुचित रूप प्राप्त करने के लिए हमें अनेकांतवाद के चिन्तन को अवलम्ब बनाना होगा । जब हम दूसरे के कथन को सुनते हैं और उसे न्यायोचित मानकर स्वीकृति देते हैं तो समझना चाहिए हम अनेकांतवाद के धरातल पर खड़े हैं । अनेकांतवाद में धर्म-निरपेक्षता की भावना भी विद्यमान है । जहां मतों में, धर्मों में, विचारों में कोई आग्रह नहीं होता, कोई संघर्ष नहीं होता, किन्तु सहिष्णुता का उदधि उद्वेलित है, वहीं अनेकांत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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