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अध्यात्म के परिपावं में
सत्यता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता; जैसे, लन्दन में यदि रात के दो बजकर दस मिनट हुए हों तो भारत में प्रातः के छह बजकर चालीस मिनट होते हैं । दिल्ली से यमुना पूरव में है, लेकिन वही यमुना गाजियाबाद से पश्चिम में है। सोना एक पदार्थ है; लेकिन अगूठी के रूप में, कर्णफूल के रूप में, कंगन के रूप में, नेक्लेस के रूप में उसके कई आकार हैं। कई रूपों में उसकी उपयोगिता स्पष्ट है । अंधे व्यक्तियों का हाथी के पैर, कान, संड, पेट पकड़कर उन्हीं अंगों को हाथी मानना भले ही पूर्ण सत्य न हो, लेकिन वे हैं सभी हाथी के अंग; हाथी से भिन्न उनका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । फलतः सभी अंधे व्यक्ति सत्यांश के सन्निकट हैं। श्रीमती इन्दिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री ही नहीं हैं, वह एक माता भी है, एक दादी भी हैं और पं० नेहरू की सुयोग्य बेटी भी हैं। उनके ये रूप भिन्न-भिन्न होकर भी सत्य हैं । अतः हमें चाहिए कि प्रत्येक वस्तु का सापेक्ष रूप में अवलोकन
करें।
ठीक है कि अनेकांतवाद की कोई निरपेक्ष परिभाषा सहज नहीं, यहां पहुंच कर भाषा जैसे मूक हो जाती है, शब्द जैसे पंगु हो जाते हैं । अनेकांतवाद के द्वारा महावीर ने परस्पर विरोधी धर्मों, सन्तों के मध्य एक बुद्धिगम्य समन्वय स्थापित करने का श्रेयस्कर प्रयत्न किया। यह विचार-दर्शन आइन्स्टीन के सापेक्षवाद के अत्यधिक निकट है । अनेकांतवाद को 'स्याद्वाद' की शैली में अभिव्यंजित किया गया है । 'स्यात्' अर्थ की दृष्टि से सापेक्षता का द्योतक है । आइन्स्टीन के सत्य के दो पक्ष हैं (१) सापेक्ष सत्य (२) नित्य सत्य । उनके मतानुसार सापेक्ष सत्य ही बुद्धिगम्य है। महावीर का अनेकांतवाद भी पूर्णतः सापेक्ष सत्य पर आधारित है; अतः तर्कसंगत और सुगम है।
अनेकांतवाद को 'स्याद्वाद' की शैली में प्रस्तुत किया जाता है । 'स्यात्' शब्द 'शायद' का समानार्थी नहीं है; 'शायद' में तो वस्तु-स्थिति का बराबर अनिश्चय बना रहता है, वस्तु की स्थिति संदेहास्पद बनी रहती है, जबकि स्याद्वाद में वस्तु की स्थिति का निश्चय बना रहता है। हां, यह 'वस्तु-स्थिति-निश्चय सापेक्ष' होता है । इसके द्वारा हम सापेक्षता में सोचते हैं पक्षपात में नहीं
'स्याद्वादो विद्यते यत्र, पक्षपातो न विद्यते ।
अहिंसायाः प्रधानत्यं, जैनधर्मः स उच्यते ॥'
हम जितना जानते हैं उतना अभिव्यक्त नहीं कर पाते, कहने पर भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है । बस 'गूंगे के गुड़' जैसी बात है; गूंगा वस्तु के माधुर्य का अनुभव तो करता है परन्तु उसका वर्णन करने में असमर्थ है। वास्तव में अपूर्णता या अधूरेपन के अभाव को दूर करने के लिए ही 'स्यात्'
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