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________________ युवाचार्य महाप्रज्ञ की शिक्षा-विषयक दृष्टि १९७ नहीं माना जा सकता । शिक्षा विद्यार्थी में जिम्मेदारी तथा अनुशासन का ज्ञान नहीं कराती तो वह सार्थक नहीं कही जा सकती । शिक्षा द्वारा बसीरत, ज्योति, दृष्टि प्राप्त न हो तो उस शिक्षा को सारशील नहीं माना जा सकता। युवाचार्य का विचार है कि शिक्षा बदलने से समाज-व्यवस्था बदल सकती है । समाज-व्यवस्था को हम शिक्षा में देख सकते हैं। "शिक्षा बिम्ब है और समाज उसका प्रतिबिम्ब । शिक्षा का तन्त्र यदि मुहासों से भरा है तो समाज वैसा ही बनेगा, समाज को स्वच्छ नहीं बनाया जा सकता।" शिक्षा का उद्देश्य उन्होंने 'आत्मानुशासन' माना है। आत्मानुशासन के लिए मन, विचार, बुद्धि, शरीर सभी प्रकार की शक्तियों को संतुलित करना है । विद्यार्थी के शरीर या बुद्धि को मन या विचार को परिष्कृत करने के लिए जीवन-विज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। जीवन-विज्ञान द्वारा जैविक संतुलन बनाना है, क्षमता की आस्था जागृत करना है, दृष्टिकोण, भावना और व्यवहार को परिष्कृत करना है । विद्यार्थी के पास न सम्यकभाव है न सम्यक्ज्ञान है, न सम्यक् व्यवहार है। जीवन-विज्ञान द्वारा सम्पूर्ण शिक्षा दी जा सकती है—शरीर, मन, वाणी की शिक्षा दी जा सकती है। युवाचार्य ने सही कहा है कि शिक्षा अनेक विषयों की दी जाती है "पर मन को शिक्षित करने का कोई उपक्रम नहीं आया" यह हमारी शिक्षा-पद्धति का बड़ा दोष है। मन को शिक्षित करना व्यक्ति को सही अर्थों में शिक्षित करना है । ध्यान जोवन-विज्ञान का ही एक रूप है। सहिष्णुता भी जीवन-विज्ञान की सीमा में है। यदि हम शिक्षा द्वारा चरित्र का विकास नहीं कर सकते, व्यक्ति को संयमी नहीं बना सकते, या उसमें सहनशीलता विकसित नहीं कर सकते, उसे अनुशासनप्रिय नहीं बना सकते तो ऐसी शिक्षा अधूरी है। युवाचार्य ने स्वतन्त्र दृष्टि के विकास को भी आवश्यक माना है और स्वतन्त्र दृष्टि के लिए या स्वतन्त्र व्यक्तित्व के विकास के लिए प्राणशक्ति, अन्तर्दृष्टि, अनुशासन तथा नियंत्रण इन सभी का विकास करना होगा । हम जीवन में संघर्षरत रहकर ही प्राणशक्ति का विकास कर सकते हैं और शक्ति अच्छे कार्यों में लगे यह होगा अन्तर्दृष्टि के विकास के द्वारा । अन्तदृष्टि का क्षेत्र मन और बुद्धि से काफी आगे का क्षेत्र है। युवाचार्य की दृष्टि में जीवनविज्ञान सोद्देश्य और अभ्यासमय शिक्षा-पद्धति है, प्राणायाम, श्वास-प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा आदि इसी के अन्तर्गत प्रयोग हैं। जीवन-विज्ञान से जो लाभ अजित हो सकते हैं वे यह हैं : (१) पुस्तक-ज्ञान के साथ अच्छे जीवन की कला को सीख लिया जाता है। (२) स्व-संवेगों पर नियन्त्र करना आ जाता है। (३) अभ्यासों के द्वारा रासायनिक संतुलन स्थापित हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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