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________________ अध्यात्म के परिपार्श्व में है । शिविर लगाकर प्रयोग द्वारा अन्तःस्राव वाली ग्रन्थियों को पुनः सक्रिय किया जा सकता है । बालक का नाड़ीतन्त्र और ग्रंथितंत्र दोनों का संतुलित रहना आवश्यक है। दो प्रकार की शिक्षा--बौद्धिक विकास की शिक्षा और धर्मशास्त्र की शिक्षा दोनों एकांगी हैं, जीवन के एक-एक पक्ष को ही उद्घाटित करती हैं। युवाचार्य ने उस धर्म को निर्बल समझा है जो विज्ञानमय वातावरण में अपना स्वरूप-अस्तित्व कायम न रख सके । आज आवश्यकता इस बात की है कि हम शिक्षा को वैज्ञानिक संबल प्रदान करें, फिर चाहे वह विषयगत शिक्षा हो या धर्मगत शिक्षा हो, हमारी युवा पीढ़ी के लिए कारगर सिद्ध होगी। विज्ञान के बढ़ते प्रभाव को हम रोक नहीं सकते, उसे मोड़ अवश्य दे सकते हैं। युवा पीढ़ी वैज्ञानिक चेतना-सम्पन्न होगी तो वह २१ वीं सदी में पूर्ण आत्मविश्वास से प्रवेश करेगी। विद्यार्थी को संतुलित संवेगों वाला बनाना होगा, तभी उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होगा--फिजिकल, मेंटल तथा इमोशनल तीनों का विकास अनिवार्य है, तभी जाकर छात्रों का सम्यक् और संपूर्ण विकास होगा । युवाचार्य के मत में सर्वांगीण विकास के लिए चार बातों पर ध्यान देना होगा-(१) शरीर (२) मन (३) बुद्धि (४) भाव । हमारी शिक्षा संस्थाओं में बुद्धि के विकास पर अत्यधिक बल दिया जाता है, शेष बातें को बहुधा उपेक्षित किया जाता है। संवेगों के परिष्कार पर या भावात्मक विकास पर ध्यान नहीं दिया जाता। युवाचार्य ने कहा-संवेगों के परिमार्जन के लिए जीवन-मूल्यों के परिबोध तथा प्रयोग पर ध्यान देना आवश्यक है। बोधदृष्टि के साथ प्रयोगात्मक दृष्टि भी रहनी चाहिए । बिना प्रायोगिक दृष्टि से आदर्श या मूल्य प्रभावहीन होते हैं । उन्होंने यह माना है कि पीनियल ग्लैण्ड का परिष्कार ज्योतिकेन्द्र हैयहां विज्ञान और अध्यात्म दोनों दृष्टियां मिल सकती हैं। संवेगों के परिष्कार से तन-मन दोनों स्वस्थ रहते हैं। विद्यार्थी के स्वभाव को रंग भी बहुत प्रभावित करते हैं, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है । नीले रंग से विद्यार्थी की उद्दण्डता कम हो जाती है । नीला, पीला, गुलाबी रंग संवेगों का परिष्कार कर सकते हैं। व्यक्ति पर विधायक तत्त्व का प्रभाव अच्छा पड़ता है। यदि उसके साथ निषेधात्मक व्यवहार करेंगे तो उसमें विरोध उत्तेजना उत्पन्न होगी। हम प्रयोगों की ओर ध्यान नहीं देते और शिक्षा में, विद्यार्थी में, उसके दृष्टिकोण तथा व्यक्तित्व में परिवर्तन लाना चाहते हैं तो कभी सफलता नहीं मिलेगी। धर्म के द्वारा भी कोई परिवर्तन तब तक सम्भव नहीं जब तक ध्यान, अभ्यास प्रयोग न हो। शिक्षा अभ्यासात्मक होनी चाहिए। वर्तमान शिक्षा हमें लिखना-पढ़ना सिखाती है, साक्षर बनाती है, लेकिन वह हमें शिक्षित कम बनाती है। शिक्षा साध्य नहीं है, साधन है। शिक्षा विद्यार्थी में यदि स्वतन्त्र चिन्तन, स्वतंत्र निर्णय का बोध नहीं जगा पाती तो उसे सफल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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