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अनेकान्तवाद और लोकतंत्र : समान जीवनदृष्टि
दृष्टि कह सकते हैं । काका कालेलकर ने अनेकान्तवाद को जैनियों की एक बहुत बड़ी देन माना है और कहा है-'अनेकान्तवाद के बल पर हम सर्वधर्म समभाव का प्रचार कर सकते हैं और इससे भी महत्त्व की बात यह है कि संघर्ष की जगह समन्वय और विविधता को भी स्थान हो. और समन्वय के द्वारा एकता की भी स्थापना हो।' एक लोकतंत्र में अनेक धर्मों और सम्प्रदायों के माननेवाले रहते हैं, उन सभी को भावनाओं का समादर करते हुए एक समन्वित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है, फिर पक्षपात की कोई गुंजाइश नहीं रहती । अनेकान्तवाद एक मनोवैज्ञानिक और समन्वयवादी जीवन दर्शन है। उसका समन्वय वादी पक्ष लोकतंत्र की सफलता के लिए अनिवार्य है क्योंकि समन्वयवादी दृष्टि अपना कर हम विरोधी पक्ष को भी अपने साथ लेकर चल सकते हैं ।
___ अनेकान्त वैयक्तिकता और सामाजिकता के बीच एक सेतु है, जब तक दोनों का समन्वय न होगा, सामाजिक जीवन में सुख-शान्ति नहीं आ सकती। भारत में आज २००० जातियां उपजातियां रहती हैं । जब तक उनके मध्य एकता, प्रेम, सौहार्द की भावना नहीं होगी तब तक राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता। १९ वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय ने देश में एकता की नयी चेतना को जन्म दिया । हमारी संकुचित भावनाओं, सामाजिक रूढ़ियोंकुरीतियों का उन्मूलन किया, साम्प्रदायिक भेदभाव को अपार्थ सिद्ध करके राष्ट्र को एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान किया, इसी प्रकार बीसवीं शताब्दी में महात्मा गांधी ने साम्प्रदायिकता का अन्त करने के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। आज पुनः जातीय एवं साम्प्रदायिक भेदभाव सिर उठाने लगे हैं, जिनसे लोकतंत्र को खतरा उत्पन्न होने लगता है, सामाजिक जीवन आक्रान्त हो जाता है, देश की प्रगति में गतिरोध उत्पन्न होता है। क्यों नहीं हम भारत माता को मातृवत् समझते और अपने को पुत्र मानकर उसके प्रति प्रेम की वह उदात्त भावना व्यक्त कर पाते जिसका निर्देश अथर्ववेद में किया गया है-माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः । (अथर्ववेद, १२-१-१२)
हम चाहते हैं कि हमारा समाज में आदर हो, फिर दूसरे को अस्पृश्य समझकर उसका अनादर क्यों करते हैं ? लोकतंत्र में सभी की उन्नति प्रगति की संभावना रहती है, चाहे वह दलित वर्ग हो या सर्वहारा वर्ग हो । महर्षि अरविन्द ने तो यहां तक कहा था-'हमारा पहला और पवित्र कर्तव्य सर्वहारा का उत्थान और जागरण करना है।' अरविन्द की इस बात को साकारित करने के लिए अनेकान्तवादी लोकतंत्र को सुदृढ़ करना होगा क्योंकि उसका आधार वैचारिक समन्वय है। हमें अपनी आत्मा के द्वारा दूसरे की आत्मा को जीतना चाहिए, फिर कहीं भी शत्रु या वैर-भाव नहीं रह सकेगा।
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