SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म के परिपावं में सयं सयं पसंसंतं परं वयं जे उ तत्थ विउस्सन्ति संसारे ते विउस्सिया । (सूत्रकृतांग, १-१.२-२३) जो अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं, वे एकान्तवादी संसार चक्र में भटकते रहते हैं। वैचारिक सहिष्णुता अनेकांत का दूसरा लोकतंत्रीय पक्ष है वैचारिक सहिष्णुता । भारत ने राजतंत्र से लेकर लोकतंत्र तक पहुंचने में कई मंजिलें तय की हैं। यहां का लोकमत भी बहुत बलवान् और प्रभावशाली है । चाहे कोई राजा कितना ही प्रतापी क्यों न हो वह लोकमत की अवहेलना नहीं कर सकता, यदि किसी ने की तो उसकी दुर्दशा नहुष तथा नृग जैसे राजाओं के समान हुई । रामचन्द्रजी जैसे लोकसंग्रही को लोकमत के सामने झुकना पड़ा था, सीता-परित्याग उसी का दृष्टान्त है । लोकतंत्र में दूसरों के विचारों, मतों, अवधारणाओं, रीति-रिवाजों, भाषा-साहित्य आदि के प्रति औदार्यपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना होता है। स्थानीय भाषाओं की मान-मर्यादा बढ़ानी होती है। महावीर ने अपना उपदेश जनभाषा अर्द्धमागधी में दिया था और लोकमानस को पूर्णतः प्रभावित किया था । यदि समाज में नूतन क्रान्ति लानी है तो जनभाषा या राष्ट्रभाषा द्वारा ही संभव है, इसी को हिन्दुस्तानी कह सकते हैं, जिसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हमें सत्य-अहिंसा का उपदेश दिया, एक अमोघ अस्त्र प्रदान किया। जब हम दूसरे व्यक्ति या समाज अथवा जाति के विचारों, मान्यताओं का आदर करते हैं, उनके प्रति सहिष्णुतापूर्ण व्यवहार करते हैं तो अपने ही देश और समाज को शांतिमय वातावरण प्रदान कर उसकी प्रगति-उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करते हैं । यहां पारस्परिक सौहार्द अंगड़ाई लेता है । हिंसा और द्वेष का दुर्दैत्य थककर बैठ जाता है। आज हम यदि लोकतंत्रीय पद्धति द्वारा समाजवाद लाना चाहते हैं तो वह भारतीय जीवन-दर्शन से ही संभव होगा, पाश्चात्य जीवन-दर्शन या परम्परा के अनुकरण से नहीं। यहां तक कि औद्योगिक क्रांति भी भारतीय परम्परा द्वारा सम्भव हो सकती है और उसके साथ राष्ट्रीय एकता को बल मिल सकता है और भावात्मकता की स्थापना भी शीघ्र हो सकती है। वैचारिक समन्वय वैचारिक समन्वय को दूसरे मत का परिपूरक कहना अधिक उचित होगा । राजनीतिक धरातल पर यदि वैचारिक समन्वय हुआ तो लोकतंत्र की सफलता असदिग्ध है । वैचारिक समन्वय को हम सत्यान्वेषण की व्यापक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy