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________________ अनेकान्तवाद और लोकतंत्र : समान जीवनदृष्टि ( ५ ) किसी अपेक्षा से है और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है । (६) किसी अपेक्षा से नहीं है और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है । ( ७ ) किसी अपेक्षा से है तथा किसी अपेक्षा से नही है, किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है । सत्य उसी समय असत्य हो जाता है जब हम उस दृष्टिकोण या अपेक्षा को अपने विचार से ओझल कर देते हैं जिससे कि वह कहा गया है । अतः वस्तुतत्व के सम्यक् विचार के लिए दृष्टिकोणों की विवक्षा अपेक्षित है । विभिन्न दृष्टिकोणों पर सहिष्णुता से विचार करना तथा उनमें सामंजस्य स्थापित करना सर्वमान्य सत्य का अनुगमन करने के लिए आवश्यक है । यही अनेकान्त का राजनीतिक पहलू है जिसे हम लोकतंत्र के संदर्भ में तीन रूपों में व्यक्त कर सकते हैं १. वैचारिक संघर्ष का निराकरण | २. वैचारिक सहिष्णुता । ३. वैचारिक समन्वय । वैचारिक संघर्ष का निराकरण लोकतंत्र में विरोधी पक्षों का होना भी स्वाभाविक है और उनकी वैचारिक भिन्नता का होना भी स्वाभाविक है । यही विरोधी पक्ष संसदीय लोकतंत्र की नदी को सीमित तटबंधों में बहने के लिए विवश करता है, सत्ताधारी पक्ष को मनमाना करने से सावधान करता है, उसके दुराग्रह की अवमानना करता है । दुराग्रही सरकार मदांध होकर डिक्टेटराना रुख अपना लेती है और फलस्वरूप न्याय-अन्याय में विवेक नहीं कर पाती । लोकतंत्र में वैचारिक संघर्षों तथा मतभेदों का अपाकरण अनिवार्य होता है, तभी सत्ताधारी सरकार सम्यक् रूप में कार्य कर सकती है । उसे विरोधी पक्ष की धारणा में भी सत्य देखना चाहिए । महावीर का अनेकान्तवाद यह बताता है कि तुम्हारे विरोधियों के पास जो भी सत्यांश है उसे समझो, पहचानो, ग्रहण करो । ऋग्वेद में प्रतिपादित है - "एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति ।' अर्थात् सत्य एक है, बुद्धिमान् उसका अनेक रूपों में वर्णन करते हैं । सत्य के अनेक रूप या अंश सम्पूर्ण सत्य से पृथक् नहीं, उसीके तो अंगभूत है फिर वे सभी सत्य हैं, स्वीकार्य हैं | अनेकांतवादी विचार-दृष्टि भी यही है । संसार में जो भी युद्ध या महायुद्ध हुए हैं वे सभी दुराग्रहावलम्बित थे और जब तृतीय महायुद्ध होगा, वह दुराग्रह के कारण ही होगा । लोकतंत्र इस प्रकार के दुराग्रह को स्वीकार नहीं करता, यहां किसी भी तरह के मताग्रह को स्थान नहीं । महावीर ने ठीक ही कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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