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________________ अध्यात्म के परिपार्श्व में पद्धति की आधारशिला है। महावीर चिन्तन की यह एक अभिनव देन है । यहां व्यक्ति की स्वतंत्रता को, उसके स्वतंत्र अस्तित्व को गरिमान्वित किया जाता है, उसकी उपेक्षा नहीं, अपेक्षा की जाती है । इसे हम अहिंसा और सत्य का निचोड़ भी कह सकते हैं । हिंसा में दूसरे के व्यक्तित्व को, उसकी स्वतंत्रता को अवमानित किया जाता है, नकारा जाता है। महावीर ने कहा"प्रत्येक प्राणी एक स्वतंत्र आत्मा है।" जब तक हम व्यक्ति की स्वतंत्रता को मान न देंगे, उसके अस्तित्व को न स्वीकारेंगे तब तक लोकतंत्र को सफल नहीं बना सकेंगे। महावीर का धर्म समग्रता और 'टोटेलिटी' का धर्म है, उसकी नींव सामंजस्य और समानता पर आधारित है । आज संसार के राजनीतिक मानचित्र पर दृष्टि डालिए-चारों ओर आर्थिक संकट नजर आयेगा, सांस्कृतिक विघटन देखने को मिलेगा, जीवन मूल्यों का ह्रास दिखलाई देगा और सबसे बढ़कर चारित्रिक पतन फैला मिलेगा। निःसंदेह आज का मानव एक संत्रासग्रस्त वातावरण में सांस ले रहा है, जीवन के प्रत्येक घटक में अविश्वास, घृणा, वैमनस्य, मानसिक तनाव, छल-कपट और अशांति है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी ने मनुष्य को ज्ञान की व्यापकता प्रदान की, लेकिन ज्ञानभार से दबकर वह बेचारा भाव-शून्य ही हो बैठा। और अब तो स्थिति आ गई कि वह उपयोगिता का चश्मा चढ़ाकर ही प्रत्येक वस्तु को देखता है, उस पर नजर डालता है, यहां तक कि धर्म को भी उपयोगिता की कसौटी पर कसकर खरा-खोटा समझता है । मनुष्य को इस ज्ञान-उपयोगिता के कृत्रिम अंधकूप से निकालने का काम अनेकांतवाद कर सकता है। अनेकांतवाद मनुष्य के दुराग्रह को समूल काट डालता है और उसे विरोध-निषेध से ऊपर उठाकर धर्म सहिष्णु बनाता है, अनेक सापेक्ष धर्मो, मतों, विचारों, मान्यताओं की स्वीकृति की संभावना पैदा करता है । अनेकान्तवाद के विषय में कहा'सबसन्नित्यानित्यादि सर्वयकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः' (जैन न्याय, पृ० ३२६) अर्थात अनेकान्तवाद वस्तु के अनन्तधर्मात्मक धर्मों की स्वीकृति है। हमें जानना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु अनेकधर्मा है, अनेक गुण सम्पन्न है, उसके एक रूप को ही सत्य नहीं समझना चाहिए उसके इतर गुण भी सत्य हो सकते हैं । अनेकान्तवाद वस्तु की सापेक्षता पर विचार करता है । सत्य की अभिव्यक्ति निरपेक्ष नहीं, सापेक्ष होती है, जिसे 'सप्तभंगी न्याय' द्वारा सरलता से हृदयंगम किया जा सकता है । (१) वस्तु किसी अपेक्षा से है। (२) वह किसी अपेक्षा से नहीं है। (३) किसी अपेक्षा से है भी और नहीं भी है। (४) वह किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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