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________________ अनेकान्तवाद और लोकतंत्र : समान जीवनदृष्टि 'प्रजातंत्र' से अधिक उपयुक्त और सारगर्भित शब्द 'लोकतंत्र' है, क्योंकि 'प्रजा' शब्द जुड़े रहने पर उससे किसी न किसी रूप में दासत्व की गंध आती है । तन्त्र तो है वहां, लेकिन उस तंत्र के जो कर्णधार हैं वे अपने आपको अधिशासक समझ बैठते हैं, उनमें अफसरशाही की तामसिक तथा राजसिक दुर्भावनाएं घर कर लेती हैं, सात्विक वृत्ति तथा सात्विकाचरण की ओर ध्यान कम ही जाता है। इसके विपरीत जब हम 'लोकतंत्र' का प्रयोग करते हैं - कहने और करने दोनों में ही, तो उससे स्पष्टः एक अवधारणा बन जाती है कि हम लोग लोगों के लिए - जनसमूह के लिए कुछ हित एवं कल्याण करने की भावना रखते हैं और अपने स्वार्थ पर ध्यान केन्द्रित नहीं रखते । जहां स्वार्थ-लिप्सा रहेगी वहां पर कल्याण नहीं होगा । लोकतंत्र में स्वार्थ- लिप्सा का तिरोभाव स्वतः हो जाता है । प्रजातंत्र में दासत्व की गंध होने से शोषणवृत्ति सुरसा की तरह बढ़ने लगती है । लोकतंत्र में कल्याणभावना का प्राचुर्य उसे जैनधर्म के निम्न सूत्र से जोड़ देता है, एकाकार कर देता है परस्परोपग्रहो जीवानाम् ( तत्वार्थ सूत्र, ५ / २१ ) जैसे, स्वामी धन आचार्य उमास्वाति ने इस सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा कि आपस में एक दूसरे की सहायता करना जीवन का उपकार है । वगैरह के द्वारा अपने सेवक का उपकार करता है और सेवक हित की बात कहकर और अहित से बचाकर स्वामी का उपकार करता है । इसी प्रकार गुरु उचित उपदेश देकर शिष्य का उपकार करता है और शिष्य गुरु की अनुज्ञानुसार आचरण करके गुरु का उपकार करता है । उपकार का प्रकरण होते हुए भी इस सूत्र में जो उपग्रह' पद दिया है वह यह बतलाने के लिए है कि पहले सूत्र में बतलाये गये सुख-दुःख आदि ( 'सुख-दुःख जीवित-मरणोपग्रहाश्च' - २० ) भी जीवकृत उपकार हैं अर्थात् एक जीव दूसरे जीव को सुख-दुःख भी देता है और जीवन-मरण में भी सहायक होता है ( पृ० १२११२२) । यहां 'उपग्रह' पद अधिक सार्थक है, इससे जहां यह अभिप्रेत है कि हम दूसरे जीव की भलाई करें, वहां साथ ही यह भी संकेत मिलता है कि हम दूसरे जीव या प्राणी के कार्य में सहायक हों, यही तो उपकार है और यह भावना अनेकान्त दृष्टि से उत्पन्न होती है । जैनदर्शन का राजनीतिक पक्ष अनेकांत दृष्टि में सन्निहित है । इसे कहना चाहिए कि यह लोकतंत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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