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अध्यात्म के परिपार्श्व में
सबसे बड़ा कारण आचार्यश्री ने 'दृष्टिकोण का विपर्यास' माना है । दृष्टिकोण के विपर्यास से मतलब है मुख्य और गौण में कोई भेद न रखना; और यह गौण को मुख्य तथा मुख्य को गौण समझना । दूसरे शब्दों में महत्वपूर्ण को ठुकराना और जो महत्वहीन है उसे अंगीकार करना । ' इस दृष्टिभ्रम के कारण व्यक्ति के निजी जीवन में समाज और देश में जो विसंगतियां पनपी हैं, वे किसी से अज्ञात नहीं ।' तेरापन्थ के महान मनीषी युवाचार्य महाप्रज्ञ नैतिकता का सम्बन्ध मानसिकता से जोड़ते हुए कहा है कि नैतिकता की समस्या मूलतः मानसिक समस्या है। मानसिकता बदलती है, आदमी नैतिक बन जाता है । मानसिकता अच्छी नहीं होती है तो आदमी अनैतिक बन जाता है । अनैतिकता का सम्बन्ध जितना मानसिकता से है उतना भौतिकता से या पदार्थ से नहीं है । अणुव्रत आन्दोलन एक प्रकार का नैतिक आन्दोलन है जो मनुष्य की मानसिकता को बदलना चाहता है, उसे राहेरास्त पर लाना चाहता है, कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लाना चाहता है । दृष्टिकोण के विपर्यास को सम्यक् बनाना चाहता है ।
भारत के लिए व्रत की अवधारणा कोई नई बात नहीं । हमारे यहां व्रत-संस्कार प्राचीनकाल से विद्यमान हैं । वैदिक युग हो या महावीर एवं बौद्ध-युग हो, सभी जगह व्रतों के अनुपालन का आदेश मिलता है । अणुव्रत शब्द जैनागम का शब्द है । इसका अर्थ है अणु - छोटा, व्रत= संकल्प छोटा व्रत या संकल्प | जैनागमानुसार श्रमण को पूर्णरूपेण व्रतों का पालन करना पड़ता है और उन व्रतों को 'महाव्रत' कहा जाता है । लेकिन साधारण मनुष्य या श्रावक श्रमण - साधु की भांति सामाजिक पारिवारिक दायित्वों से विमुक्त नहीं होता, अतः वह इन व्रतों का पूर्णरूपेण परिपालन नहीं कर सकता । वह आंशिक रूप में ही इनका पालन कर पाता है । छोटी सीमा तक ही उसकी बिसात है । अतएव इन व्रतों को 'अणुव्रत' का अभिधान दिया गया है । हम कह सकते हैं कि अणुव्रत एक प्रकार का संकल्प है जो मनुष्य अपने चारित्रिक विकास के उद्देश्य से ग्रहण करता है, यानी अणुव्रत का प्रमुख प्रयोजन है चरित्र - विकास, आत्म-विकास, आत्मोन्नति । बुराइयों से छुटकारा पाना, चरित्र को, मन को स्वस्थ, परिष्कृत व सुसंस्कृत बनाना अणुव्रतों का खास मकसद है । फिर मनुष्य की सकल समस्याओं का निदान हो सकता, समाज - राष्ट्र सुख-शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। यह एक रचनात्मक सामाजिक आन्दोलन है । समाज की स्वस्थ संरचना के लिए अणुव्रतों के मार्ग पर चलना परम श्रेयस्कर है । आज हमारा जीवन वैयक्तिकता के घेरे में सिमटता जा रहा है । सामाजिकता लुप्त होती जा रही है । शतुमुर्गे की भांति व्यक्ति सबसे विमुख हो एकांत में मुंह छिपाए खोटा खरा करता रहता है, एक-दूसरे से कोई सम्पर्क नहीं । पड़ोसी से कोई सम्बन्ध नहीं । न किसी
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