________________
आधुनिक मानसिकता, अणुव्रत और जीवन-मूल्य
आंदोलन है । मानवीय मूल्यों का संरक्षक और परिवर्धक है यह अणुव्रत आन्दोलन । अगुव्रत-अनुशास्ता आचार्य तुलसी जी राष्ट्रीय सन्त हैं । उनके सामने सब मनुष्य समान हैं । जैन दर्शन के अनुसार अस्तित्व की अपेक्षा से सारा विश्व एक है और जैन धर्म-दर्शन के अणुव्रत के पुरोधा आचार्य तुलसी जी कहते हैं-"एक राष्ट्र में अनेक प्रान्त होते हैं। एक प्रान्त में अनेक धर्म होते हैं। एक धर्म में अनेक जाति के लोगों की अ.स्था होती है । एक जाति में अनेक व्यक्ति होते हैं और एक व्यक्ति के अनेक विचार होते हैं। क्या इस अनेकता के आधार पर व्यक्ति, व्यवसाय, जाति, धर्म, प्रान्त या राष्ट्र को बांटा जाता है ? जहां कहीं बंटवारे की स्थिति आती है, एकता खंडित हो जाती है। मनुष्य जाति एक है, इस सिद्धान्त की स्वीकृति के बाद किसी को मारना, सताना, कष्ट पहुंचाना, तिरस्कृत करना क्या स्वयं को मारने, सताने, कष्ट पहुंचाने और तिरष्कृत करने का प्रयत्न नहीं है ? ऐसा उदारहृदय सन्त भला सम्प्रदाय की संकीर्ण सीमा में कहीं बन्ध सकता है ? उसने जब देखा कि नव वधू को दहेज के लोभ में उसके ससुराल वाले नृशंसत, निर्दयता से जिन्दा आग में जला देते हैं तो उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। जैन धर्म के, महावीर के अनुयायी भी ऐसी घोर हिंसा करते हैं, उन प्राणिमात्र से प्रेम करने वाले सन्त को कितनी आत्मपीड़ा पहुंची होगी। उन्होंने जब देखा कि हमारी सामाजिक मान्यताएं टूट रही हैं, परिवार टूट रहे हैं, रिश्ते-नाते टूट रहे हैं, सम्बन्धों में निरन्तर दरार पड़ती जा रही है। व्यक्ति में प्रेम-स्नेह, ममता-सहानुभूति के मधुर धागे टूटते जा रहे हैं तो वह कैसे परांगमुख रहते, इन सबकी उपेक्षा करते । आखिर एक विवेकशील धर्म गुरु के रूप में उनका कुछ दायित्व तो था कि इन बुराइयों, कुरीतियों को नष्ट करने का बीड़ा उठाते और रसातलोन्मुखी समाज को ऊपर उठाने का प्रयत्न करते । यहां उनके सामने जैन लोग नहीं थे, सभी जातियों, सम्प्रदायों के लोग थे। और सभी के रोगों कुरीतियों, कुप्रथाओं का निदान वह करना चाहते थे। उन्होंने देखा कि हिंसा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है । मनुष्य ईर्ष्या-द्वेष की अग्नि में न स्वयं जल रहा है, वरन् सभी मनुष्यों को, सकल मानवजाति को भस्म कर रहा है । उसका नैतिक पतन हो रहा है। शुद्ध चीजों को, खाद्य-पदार्थों को 'मिलावट करके बेचता है। शुद्ध न इंजेक्शन है, न दवा । भोगवादी संस्कृति ने सबका विनाश कर दिया है। उन्होंने कहा है भारत क्या, आज तो विश्व की समस्त संस्कृति में ही नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है । मूल्यों का यह संकट जितना सघन होता जा रहा है, उसके कारणों को खोजने की अपेक्षा उतनी ही बढ़ रही है। कारणों को मिटाए बिना मूल्यों की समस्या का समाधान खोजना कठिन ही नहीं, असंभव-सा प्रतीत होता है ।" अब देखना है कि नैतिक पतन के कारण क्या है ? नैतिक पतन के अनेक कारण हैं जिसमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org