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________________ इस्लाम की रोशनी में अणुव्रत आन्दोलन १७९ संग्रह और उपभोग। इसी धरती पर फलती-फूलती है भोगवादी संस्कृति । पदार्थ का भोग एक बात है और पदार्थ को ही सब कुछ मान लेना एक बात है । एक समय था, तब मनुष्य के जीवन का आधार था संयम। वह बहुत थोड़े साधनों से अपना काम चला लेता था। संयम का सिद्धांत गौण हुआ। आवश्यकताओं का विस्तार हुआ । आकांक्षाओं का जाल बिछा । उपभोग्य पदार्थों में वृद्धि हुई । मनुष्य की भोगवादी चेतना वहीं भटक गई। उसे पदार्थ की पकड़ से मुक्त होने का मौका नहीं मिला। भोगवादी चेतना ने पदार्थों को बढ़ाया और पदार्थों ने चेतना को बांध लिया। चेतना की तेजस्विता कम हो गई । भोगवादी मूल्य प्रतिष्ठित हो गए।' आचार्यश्री तुलसी एक सम्प्रदाय या पंथ के संघाधीश होकर भी साम्प्रदायिक भावना से सर्वथा ऊपर उठे हुए हैं। उन्होंने सम्प्रदाय व धर्म की चर्चा करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि कुछ व्यक्ति सम्प्रदाय को व्यर्थ मान बैठे हैं, उसे धार्मिक लोगों की लड़ाई का हथियार समझते हैं, वह हिंसा का साधन है । एकान्ततः ऐसा मानना भी भूल भरा चिन्तन है । सम्प्रदाय भी बहुत काम का है, यदि उसके साथ साम्प्रदायिक अभिनिवेश न जुड़े। मनुष्य खुले आकाश में रह नहीं सकता, इसलिए अपने सिर पर छत बनाता है । धार्मिक आस्थाएं भी बिना किसी आधार के टिक नहीं पातीं। इसलिए मनुष्य सम्प्रदाय के सहारे पर खड़े रहते हैं। किन्तु जहां भी सम्प्रदायवाद का रूप धारण कर लेता है समस्याओं का स्त्रोत खुल जाता है।' आचार्यवर का सम्प्रदाय से जरूर सम्बन्ध है लेकिन उसे उन्होंने 'वाद' नहीं बनने दिया, इसलिए वह सहिष्णुता, मैत्री और अनुशासन की भित्तियों पर अचंचल, अटल खड़ा है हिमालयवत और उससे फूट रही है संयम की, मानवधर्म की गंगाजमना । अणुव्रत का दर्शन नैतिकता की आधारशिला पर प्रतिष्ठित है। सुखसुविधा की चाह को बदलना अणुव्रत है। आज अनैतिकता का साम्राज्य चतुर्दिश प्रसरित है। न कहीं संयम है, न नियंत्रण है। अपराधव त्ति या हिंसात्मक रुजहान पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं । संयम या नियंत्रण होगा तो कहीं भ्रष्टाचार नहीं फैलेगा । हमारे समाज और देश की वर्तमान सोचनीय, चिंतनीय दशा को देखते हुए अणुव्रत की हम सब के लिए अनिवार्यता है, इससे विमुख होना अपने आप से विमुख होना है, मानवमूल्यों का तिरस्कार करना है, मानव-धर्म को ठुकराना है। आज हमारा समाज धर्म से नहीं, राजनीति से आक्रान्त है और राजनीति भी वह जो स्वार्थबद्ध है। जहां स्व पर ही हमेशा दृष्टि रहती है, मनुष्य स्वकेन्द्रिय होकर रह जाता है। ऐसी १. प्रेक्षाध्यान, (दिसम्बर) '९०) पृ० ५ २. प्रेक्षाध्यान, (जुलाई '९०) पृ० ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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