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________________ १८० अध्यात्म के परिपार्श्व में राजनीति में कोई शत्रु-मित्र नहीं होता, सब कारणवश मित्र और शत्रु बनते न कश्चिद् कस्यचिद् मित्रं, न कश्चिद् कस्यचिद् रिपुः । कारणादेव जयन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ।। (महाभारत) मानव को पशु से प्रथक् करने वाला गुण धर्म ही है, नहीं तो मनुष्य और पशु में चार बातें समान हैं-अ.हार, निद्रा, भय और मैथुन । जिस व्यक्ति में धर्म नहीं, वह पशुवत है-धर्मणहीना: पशुभि समाना: (हितोपदेश)। जैन संस्कृति में मानवधर्म को परिभाषित करना हो तो कहेंगे-क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच और संयम मानवधर्म हैं। जैन धर्म की जीवंत मूर्ति आचार्यश्री तुलसी का अणुव्रत इन सभी धर्मांगों को अपने में समाहित किये हुए है । जहां सहिष्णुता होगी वहां क्रोधावेश नहीं होगा, मैत्री होगी। मार्दव में अहंकार का तिरोभाव होता है। निरहंकारी मनुष्य में ही दूसरे को सम्मान देने की, एकता व समानता की भावना होगी। आर्जव में छलकपट नहीं होता, किसी के साथ अविश्वास नहीं किया जाता, चीजों में मिलावट नहीं की जाती। सदा हितकर प्रिय वचन बोलना, सबके साथ दया और हमदर्दी भरा व्यवहार करना सत्य है। यहीं समस्त प्राणिजगत् के हित-सम्पादन का भाव पैदा होता है । प्रकृति और संस्कृति के संरक्षण के संस्कार आविभूत होते हैं । शौच में जीवन-सुरक्षा का भाव भरा है। समाज, राष्ट्र, प्राकृतिकसम्पदा के संरक्षण का पाठ मनुष्य शौच द्वारा ही सीखता है। अनावश्यक या परिमाण से अधिक वस्तुओं का संग्रह समाज के लिए कठिनाइयां पैदा करने वाला होता है । संयम को तो जैन धर्म का प्रमुख आधार माना गया है । संयम धर्म का पालन करते हुए मनुष्य समाज विरुद्ध , देश विरुद्ध , संस्कृति विरुद्ध , प्रकृति विरुद्ध कार्य नहीं कर सकता। उस मनुष्य को संस्कृत मनुष्य नहीं कहा जा सकता जिसमें मानवता नहीं, मानवीय गुण नहीं, मानव-धर्म नहीं । अणुव्रत आन्दोलन राष्ट्र को, समाज को, मनुष्य को संस्कृत करने वाला जीवंत और अर्थवत्तापूर्ण सक्रिय आन्दोलन है। बिना अणुव्रत का आंचल पकड़े हम व्यक्ति सुधार, समाज विकास और राष्ट्रोन्नति के मार्ग पर नहीं चल सकते । मनुष्य में आत्मनिर्भरता और स्वाबलम्बन-विकास अणुव्रत द्वारा सरलता से किया जा सकता है। चरित्र को धर्म माना गया है और जो धर्म है वह साम्य है । ऐसा शास्त्र कहते हैं। साम्य, मोह-क्षोभ रहित आत्मा का भाव है। मनुष्य में चारित्रधर्म का आलोक विकीर्ण करने वाला आन्दोलन १. चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो समोत्तिणिछिट्ठो। मोहक्खोविहीणो परिणामों अप्पणो अघणोह समो॥ (प्रवचनसार, १७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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