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________________ १७८ अध्यात्म के परिपार्श्व में तथा विकास करने वाला व्यावहारिक आन्दोलन है जिसके प्रधानतया तीन मूल उद्देश्य हैं ( १ ) मनुष्य को आत्मसंयम की ओर सम्प्रदाय, भाषा, प्रान्त आदि के (२) समाज में मैत्री, एकता और शान्ति की स्थापना करना । (६) शोषणविहीन या स्वतन्त्र समाज की संरचना करना । उत्प्रेरित करना और जाति, भेदभाव को दूर करना । आज चारों तरफ हिंसा का रक्तिम ताण्डव हो रहा है । न संयम है, न उदारता है । घृणा, द्वेष, लोभ, ईर्ष्या का वातावरण है । मनुष्य मनुष्य के बीच फासले बढ़ते जा रहे हैं । उन बढ़ते फासलों को कम करने के लिए अणुव्रत सेतु का काम करता है, मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है, एक संप्रदाय को दूसरे सम्प्रदाय से जोड़ता है, एक धर्म को दूसरे धर्म के करीब लाता है जोड़ना इसका प्रमुख लक्ष्य है । यह सुई का काम करता है, कैंची का नहीं जो काटती है, दूरी बढ़ाती है, पृथक् करती है । महावीर का प्रसिद्ध सूत्र है; मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्भं न केणइ ।' आचार्यश्री तुलसी का आन्दोलन भी मैत्री का, एकता का, सद्भाव का आन्दोलन है, मानव-धर्म की प्रतिष्ठापन का आन्दोलन है । आचार्यश्री तुलसी मानव-धर्म के महान् आचार्य हैं, पुरोधा हैं । आज का मनुष्य, समाज और देश जिन प्रमुख समस्याओं से दो-चार है वे हमारी अपनी दुर्बलता के कारण उद्भूत हैं । जिधर देखो उधर हिंसा है, आतंक है, उग्रवाद है, हत्याएं हैं । चारित्रहीनता, साम्प्रदायिकता और अन्धविश्वास है । एक तरफ भूख, बेरोजगारी और महंगाई है तो दूसरी ओर अस्पृश्यता, निरक्षरता और जातिवाद है । पृथक्तावाद अलग सर्प की भांति फूफ्कार कर रहा है । ऐसे में कोई निर्भय मनुष्य दिखाई नहीं देता, सभी भयाकुल हैं । आचार्यश्री तुलसी अणुव्रत आन्दोलन द्वारा मनुष्य का नव निर्माण करना चाहते हैं, उसे सुसंस्कृत निर्भय व शीलवान बनाना चाहते हैं, शुद्ध आचरण वाला, अहिंसा, संयम का पालन करने वाला बनाना चाहते हैं । . मानो अणुव्रत ऐसा सांचा है जिसमें ढलकर जो निकलेगा वह व्यसनमुक्त होगा, उदारचेता और सहिष्णु होगा, सब से मैत्री भाव रखने वाला होगा, एक सच्चा - पक्का, खरा मानव-धर्म का पालन करने वाला ही होगा। आज हमारा समाज और देश समस्याओं के जिस अथाह सागर में फंसा है उससे निकलने के लिए आचार्य श्री तुलसी के अणुव्रत आन्दोलन की नौका काम आ सकती है । आज भोगवादी चेतना के भंवर जाल में फंसा मनुष्य जितना उबरना चाहता है उतना ही अधिक फंसता जाता है । मनुष्य पदार्थ में जकड़ा है, वह पदार्थ को ही सब कुछ समझ बैठा है । आचार्यश्री तुलसी ने ठीक कहा है कि भोगवादी चेतना पदार्थाभिमुख होती है- अधिकाधिक पदार्थों का उत्पादन, Jain Education International For Private.& Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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