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________________ आचार्य तुलसी की धर्मशासना : आधुनिक संदर्भ में १७३ विशेष का है, न धर्मविशेष का है और न देश विशेष का है। यह मानवधर्म का आन्दोलन है । इसके प्रमुखतः तीन उद्देश्य हैं :--(क) जनसाधारण में नैतिकता का भाव उत्पन्न करना (ख) धार्मिक जीवन से धर्मस्थान और कर्मस्थान की विषमता व विसंगति को दूर करना (ग) सामाजिक समस्याओं का समाधान व्रत द्वारा करना। वस्तुत: इस आन्दोलन का काम संस्कारों का परिष्कार तथा निर्माण करना है, व्यक्ति को नैतिक आदर्शों या मूल्यों के प्रति निष्ठाशील बनाना है। उन्होंने कहा है -"जो व्यक्ति अपना हित साधने के लिए दूसरों के हितों का विघटन नहीं करता, दूसरों के प्रति क्रूर व्यवहार और विश्वासघात नहीं करता, उसे मैं नैतिक आदमी मानता हूं।" व्यक्ति को नैतिक बनने से कुछ बाधाएं रोकती हैं और ये बाधाएं हैं -निर्धनता या दरिद्रता, अनैतिक तरीकों द्वारा लाभ या धनार्जन, अपने को बड़ा समझने का अहं, कुकर्म का फल बुरा है, इसमें विश्वास न रखना। इस आन्दोलन के द्वारा वे त्याग और नैतिक चेतना का सुखद आलोक चारों दिशाओं में विकीर्ण करना चाहते हैं । उन्होंने इस आन्दोलन के द्वारा हमारी समस्याओं के समाधान का एक सम्यक् उपाय सुझाया है, हमारे हृदय में नैतिक चेतना की लौ जलाई है। यह हमारा उत्तरदायित्व है कि हम सदैव उसे प्रज्ज्वलित तथा अकम्प रखें। आचार्यजी ने ठीक कहा है-"मैं समस्या के स्थायी समाधान में कभी विश्वास नहीं करता। सूर्य प्रतिदिन प्रकाश देता है और अन्धकार को हरता है। मनुष्य का मनुष्यत्व इसी में है कि वह समस्याओं के सामने समाधान की लौ जलाता रहे।" आचार्यश्री तुलसी ने १७,९२४ दिनों की पैदल यात्रा का कीर्तिमान स्थापित किया और जनमानस को आन्दोलित किया। नैतिक मूल्यों के आधार पर मानवीय एकता का मार्ग प्रशस्त किया। अणुव्रत तथा प्रेक्षाध्यान को देशव्यापी रूप प्रदान किया। अपना एक योग्यतम उत्तराधिकारी 'युवाचार्य म प्रज्ञ' नियुक्त किया । धर्मसंघ को वर्तमान युग के परिवेश में ढाला। धर्मसम्प्रदायों में मैत्री तथा समन्वय की जोत जलाई। आज सात सौ साधुसाध्वियां उनके धर्मसंघ में सम्मिलित हैं, असंख्य श्रावकों की श्रद्धा और सद्भावना के सुवासित पुप्पों से उनका आंचल भरा है। उन्होंने कहा है"साम्प्रदायिक एकता की बात तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक एक दूसरे सम्प्रदाय के प्रति आदर के भाव न हों। हमने इसका प्रयोग किया । जैन सम्प्रदायों के आचार्यों तथा मनुष्यों के मिलन का रास्ता खुला। जैन शासन की प्रभावना के सम्बन्ध में चर्चाएं चलीं और एक मंच से कार्यक्रम होने लगे । भगवान महावीर की पच्चीस सौवीं निर्वाण शताब्दी का आयोजन भी एकता के लिए एक निमित्त बना। उस प्रसंग में जैन समाज ने एक ध्वज, एक प्रतीक और एक ग्रन्थ को मान्यता देकर शताब्दियों से बढ़ती जा रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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