SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ अध्यात्म के परिपार्श्व में आचार्य भिक्षु के मौलिक चिंतन को युगीन संदर्भ में प्रस्तुत करने का कार्य युवाचार्य का है। "प्रेक्षाध्यान" नाम से एक स्वतन्त्र साधना-पद्धति जैन समाज को प्रदान करने में उन्होंने सहयोग दिया और इन सबके पीछे आचार्यश्री तुलसी का प्रेरक व्यक्तित्व ही सक्रिय था। आचार्यश्री तुलसी ने ठीक ही फरमाया "ये मुझसे भिन्न कोई व्यक्ति नहीं।" इससे बढ़कर एक शिष्य की प्रशंसा क्या होगी? यह गुरु की भी अपनी गुरुता है, बड़प्पन है। वे आचार्यजी के चितन के सफल, मौलिक, प्रभावशील भाष्यकार हैं। "जब से मैंने इनमें अपना उत्तराधिकार नियोजित किया है, मैं इन में अपना ही रूप देखता हूं।" यह है स्नेह का उद्वेलित सागर । एक सौ पुस्तकों से अधिक पुस्तकों के रचयिता युवाचार्यजी प्रकाण्ड विद्वान्, कुशल वक्ता, मौलिक चिंतक, महान् दार्शनिक, कुशाग्र सम्पादक, गहन तत्वान्वेषी, मेधावी भाष्यकार हैं । उनका चितन प्रवाह युग की धारा के साथ प्रवहमान है। इसका श्रेय आचार्य श्री तुलसी को है। आचार्यजी का धर्मसंघ, उसकी व्यवस्था या अनुशासन प्रशंस्य है। एक स्थान पर आचार्य तुलसी ने कहा है-''हमारे देश में केवल धर्म या नैतिक मूल्यों की समस्या नहीं है । एक ज्वलंत और सार्वभौम समस्या है अर्थ की । अर्थ का अतिभाव विलासिता बढ़ाता है और अर्थ का अभाव व्यक्ति को क्रूर एवं अपराधी बनाता है। इन दोनों वर्गों के लोग कभी स्वस्थ और सुखी नहीं हो सकते । इस समस्या के सन्दर्भ में अगुव्रत दर्शन ने दो सूत्र दिये-विसर्जन और संविभाग। विसर्जन का अर्थ है अपने स्वामित्व और ममत्व को छोड़ना । इसने संग्रह और शोषण की मनोवृत्ति में बदलाव आता है। संविभाग का अर्थ है "सबका श्रम और सबका स्वामित्व ।' यहां स्वामी और सेवक न होकर दोनों भागीदार होते हैं । यह दृष्टिकोण बड़ा ही उपयोगी है-विशेषकर उद्योग के क्षेत्र में । उद्योगपति का अहंभाव, उसका स्वामित्व कम होता है, उधर श्रमिकों में आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान बढ़ता है, उनकी हीनता कम होती है। अणुव्रत द्वारा निर्दिष्ट तथा प्रचारित यह संविभाग आज के सन्दर्भ में उपयोगी तथा अनुकरणीय है। भगवान महावीर ने जिस अपरिग्रहवाद का दर्शन दिया था-अगुव्रत में उसे आचार्यश्री ने "विसर्जन" तथा "संविभाग" के रूप में प्रस्तुत किया है । आचार्य उमास्वामी ने परिग्रह को 'मूर्छा' या ममत्व कहा है। आज यही ममत्व या लोभवृत्ति हमारे समाज को घुण की भांति अन्दर ही अन्दर खाये जा रही है और उसे खोखला कर रही है । वह भ्रष्टाचार, उत्कोच, शोषण, मिलावट, जमाखोरी, दहेज न जाने किस-किस रूप में परिलक्षित होती है। आचार्यजी ने अणुव्रत आन्दोलन को नैतिकता से जोड़कर उसे धर्मक्रान्ति का वाहक और मानवजाति के लिए सार्वदेशिक रूप उपयोगी बनाया। यह आन्दोलन न जाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy