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________________ अध्यात्म के परिपार्श्व में है-"मित्ती मे सव्व भूएसु"। महावीर ने सभी के प्रति अहिंसा और मैत्री का, सेवा और करुणा का व्यवहार किया। वह समन्वय के सूत्रधार थे और आचार्यश्री तुलसी उसी समन्वय की परम्परा को आज साकार रूप दे रहे हैं । आज चारों ओर जो संघर्ष और घृणा का दूषित वातावरण है उसको स्वच्छ करने के लिए मैत्री-भाव की आवश्यकता है। मंत्री भाव को शत्रु तक पहुंचाना चाहिए, अपने विरोधियों को भी मंत्री भाव से जीता जा सकता है, उनके हृदय को बदला जा सकता है, उनके विकारों को दूर किया जा सकता है । हमें चाहिए कि अपने हृदय को विशाल बनाएं, भावों को, बुद्धि को परिष्कृत करें, मन को खुला रखें तो अनेक समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। आचार्यश्री तुलसी ने यह बहुत अच्छी बात कही है-सेवा और मैत्री के सम्बन्ध में आज भी बहुत लोगों की अवधारणाएं स्पष्ट नहीं हैं। वे मैत्रीभाव बढ़ाते हैं समान-धर्मा लोगों के साथ । उनका अभिमत है-समानकुल, समान बल, समानवय और समान वैभव वालों के साथ ही मैत्री होती है । वास्तव में ये सब मैत्री की सही कसौटियां नहीं। हमें सभी प्राणियों से मैत्रीभाव रखना चाहिए । 'जो व्यक्ति जितना अधिक उदार, सेवाभावी और तत्वज्ञ होता है उसकी मित्रता का दायरा उतना ही विस्तृत होता है। संकीर्ण विचारों के पौधे पर मित्रता के फूल नहीं खिल सकते ।" स्वार्थ मैत्री की भावना को कलंकित तथा प्रदूषित कर देता है। इसी प्रकार सेवाभाव हमें सभी के प्रति अपनाना चाहिए। यहां भी स्वार्थ को, अपनी जाति या धर्म को, पास नहीं फटकने देना चाहिए। हमें मानव को मानव समझकर सेवा करनी चाहिए, समान जाति या समान धर्म का समझकर नहीं करनी चाहिए । सेवा "स्व" और "पर" से ऊपर उठकर, अपने को समर्पित करके की जानी चाहिए । आचार्यश्री तुलसी ने "पंचसूत्र' में यही भाव व्यक्त किया है-- सेवा शाश्वतिको धर्मः, सेवा भेदविसर्जनम् । सेवा समर्पणं स्वस्य, सेवा ज्ञानफलं महत् ।। लेकिन सेवा करने का मतलब यह नहीं कि किसी को कर्महीन बनाया जाए, उसे प्रमादी या पौरुष विहीन बना दिया जाए। सेवा द्वारा किसी को निराशा तथा हीनता का शिकार नहीं होने देना चाहिए। श्री तुलसीजी कहते हैं, "पुरुषार्थ कर्म का जनक है और कर्म पुरुषार्थ का जन्य है।" मनुष्य पुरुषार्थ का प्रयोग कर भाग्य को बदल सकता है, कर्म-फल में परिवर्तन ला सकता है। उन्होंने कर्म के साथ चित्त की निर्मलता पर भी बल दिया है। कर्म के साथ मन का मिलना "विकर्म" है, "भावकर्म'' है, यही वास्तविक कर्म है, यही सच्ची साधना है । कर्म के साथ चित्त का मिलना अद्भुत आनंद प्रदान करता है-यही कर्म उपासना बन जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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