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आचार्य तुलसी की धर्मशासना : आधुनिक संदर्भ में
'छांदोग्योपनिषद्' में कहा गया है कि मनुष्य की स्थिति ऐसी है जैसे डाक उसकी आंखों पर पट्टी बांधकर कहीं दूर देश ले जाकर छोड़ दे। ऐसे निरीह और असहाय व्यक्ति को उस समय एक ऐसे व्यक्ति की, गुरु की, मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है जो उस मनुष्य की आंखों पर से पट्टी खोलकर उसे उचित मार्ग दर्शाए । आज हिंसा, स्वार्थ, लोभ, मोह, अर्थ-लिप्सा, रागद्वेष के जंगल में मनुष्य भौतिकता की पट्टी बांधे भटक रहा है और तेरापंथ के ९वें आचार्य श्री तुलसी इसी भटके हुए मनुष्य को सम्यक् मार्ग दर्शाने में गतिशील हैं। वे मानवतावादी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि तमिल संत तिरुवल्लुवर के समान आचार्य तुलसी के सामने जो मनुष्य है वह उनका भाई है, जो देश-प्रेम उनके सामने है वह उनका अपना देश-प्रदेश है। अपनी दक्षिण-यात्रा में उन्होंने कहा था-"मैं सबसे पहले मानव हूं, उसके बाद धार्मिक हूं, उसके बाद जैन और उसके बाद तेरापंथ धर्मसंघ का आचार्य ।" आचार्य तुलसी मानव धर्म के प्रतिष्ठापक हैं, वह जाति एवं सम्प्रदाय की दुर्बल, संकीर्ण परिधि में बंधकर नहीं रहते। उनके सामने मानवता का विशाल सागर लहरा रहा है, वह उसमें अवगाहन करते हैं। सबके दुःख-दर्द सुनते हैं, उनके घावों पर मरहम रखते हैं, उन्हें हिंसा से अहिंसा की ओर ले जाते हैं, उन्हें संग्रह से अपरिग्रह की ओर बढ़ने की शिक्षा देते हैं, दुराग्रह या मताग्रह के संघर्षमय पथ से हटाकर अनेकान्त के मैत्रीमय चौराहे पर लाकर खड़ा करते हैं । अब तक उन्होंने भारत में पचास हजार कि० मी० की पैदल यात्रा करके एक अनुपम दृष्टान्त व कीर्तिमान प्रस्तुत किया है। लगता है सूर्य तिमिर के पास पहुंचा है, या गंगा प्याते के पास गई है, या मंजिल मुसाफिर के चरणों से लिपट गई है, या संजीविनी रोगी के पास स्वतः पहुंच गई है। ऐसे संत प्रवर की दृष्टि में रखकर तुलसी ने उन्हें चलताफिरता तीर्थराज कहा है
"मुद मंगलमय संत समाजू, जो जग जंगम तीरथराजू ।"
आचार्यश्री तुलसी की धर्म-यात्रा मैत्री-यात्रा है, प्रेम-यात्रा है, समता-यात्रा है, सेवा-यात्रा है । यहां अपने पराये का कोई भेद नहीं, स्वार्थ की कोई चाहत नहीं, यश की कोई कामना नहीं । उनकी दृष्टि में समता और मात्मौपम्य भाव की निर्भरिणी है जो सभी को समान रूप से अभिसिंचित तथा शीतल करती है। उनके सामने सदा महावीर की यह वाणी साकारित
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