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अध्यात्म के परिपार्श्व में आचार्यश्री तुलसी आचार्यत्व की गरिमा से आपूर्ण हैं । "आचाय" शब्द आचार से बना है। आचार शब्द की व्युत्पत्ति है-आङ+च+ घञ् । इसका अर्थ है चरित्र, शील, विचार, व्रत, व्यवहाराचरण । जो शास्त्र के अर्थों का चयन करता है, उन्हें आचार या आचरण में ढालता है, उसे "आचार्य' कहते हैं -
- आचिनोति हि शास्त्रार्थान् आचरते स्थापयत्यपि । स्वयं आचरते यस्तु. आचार्यः स उच्यते ॥
"उत्तराध्ययन' (पन्द्रहवां अध्याय) में साधु आचार्य की विशद चर्चा की गई। साधु, श्रमण या आचार्य क्षमाशील, सहिष्णु होता है। उसमें "मूर्छा" नहीं होती, वह रस, रूप, गंध आदि से विमुख रहता है। यह ठीक है कि जो शिक्षा देता है हम उसे आचार्य कहते हैं । आचार्य में क्या-क्या गुण हों, शास्त्रों में उसका अच्छा, विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है । आचार्य में ३६ गुणों का समाहार स्वीकार किया गया हैतप १२
अन्तरंग-प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग,
ध्यान।
बहिरंग-अनशन, ऊनोदरी, व्रतप्रत्याख्यान, रस परित्याग, विविक्त
शैयासन, काय-क्लेश । १० धर्म-क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग,
आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य । ६ आवश्यक-समता, वन्दना, स्तवन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, स्वा
ध्याय । ५ आचार-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य । ३ गुप्तियां---मन, वचन, काय । ___ आचार्यश्री इन गुणों से सम्पन्न आचार्य हैं। आचार्य का सर्वप्रमुख कर्तव्य आचरण है । आचार को उच्च करना है, दोषमुख करना है । आचार से ही धर्म निकलता है-"आचार प्रभवो धर्मः" आचार्यश्री का धर्म आचार भूत है । संघ को अनुशासित कर सबको साथ लेकर चलते हैं । आचार्य कुंदकुंद (प्रवचनसार में) ने आचार गुप्तियों को प्रधानता देकर आचार्य के लिए कुलीन (गुणवान), संस्कारशील, सुशील होना आवश्यक माना है, साथ ही उसे सुन्दर आकर्षक व्यक्तित्व वाला भी होना चाहिए, ऐसा भी स्वीकार किया है । आचार्यश्री तुलसी सुन्दर आकर्षक व्यक्तित्व के धनी हैं, वे कुलीन हैं, संस्कारशील हैं, सुशील हैं।
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