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अध्यात्म के परिपार्श्व में
सभी के पास सत्यांश हो सकता है। हमें दुराग्रह का त्याग कर, सम्यक् दृष्टि अपनाकर सत्य का रूप जहां भी प्राप्य हो अंगीकृत करना चाहिए। मताग्रही सत्य के द्वार तक नहीं पहुंच सकता, सत्य का मार्ग प्रशस्त है, उसमें संकीर्णता नहीं, विस्तार और व्यापकत्व है। हमें जितना अपना मत प्रिय है दूसरे को भी उतना ही अपना मत प्रिय है। हमें क्या अधिकार है कि दूसरे के मत का खण्डन कर उस पर अपने मत का प्रतिपादन करने का अनैतिक आचरण करें। महावीर ने अनेकांत के द्वारा एक वैचारिक क्रान्ति उत्पन्न की। उन्होंने वैचारिक सहिष्णुता का परचम बुलन्द करके सभी को उसके नीचे खड़े होने का, अपना अभिमत व्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की। उन्होंने बतलाया-वस्तु या पदार्थ अनेक धर्म अथवा गुण विशेषता सम्पन्न होता है। उसमें एक ही गुण या विशेषता का प्राधान्य नहीं रहता। पत्नी केवल पत्नी नहीं होती, वह पत्नी के साथ एक ममतामयी मां, प्यारी सखी, विश्वसनीय मित्र, लाड़ली बेटी, प्रिय भाभी आदि भी होती है अर्थात् वह विविधरूपा होती हैं। इस प्रकार अनेक धर्मों के कारण प्रत्येक वस्तु अनेकांत रूप में विद्यमान है, उसके रूप नानाविध होते हैं । उपाध्याय यशोविजय ने कहा है'सच्चा अनेकांतवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोण को इसी प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को। माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ रहस्य है, यही धर्मवाद है।' जब विचारों में इस प्रकार माध्यस्थ भाव रहेगा या हम दूसरों के विचारों/मतों को सहिष्णता से सुनेंगे, समझेंगे, हृदयंगम करेंगे तो सभी प्रकार के वैचारिक संघर्ष नष्ट हो जाएंगे। फिर राजनैतिक मानचित्र पर बड़े-बड़े मतवाद, युद्धोन्मुखी संघर्षों को जन्म न दे सकेंगे, वियतनाम या इस्राईल-अरब की रक्तरंजित समस्याएं करोड़ों की जान लेकर समाप्त न होंगी; वह बिना रक्तपात के भी सुलझाई जा सकती है । प्रजातन्त्र में वाद-विवाद के द्वारा एक बहुमान्य सत्य की ही खोज तो की जाती है। संसद में विपक्षी दल के मत को भी सत्ताधारी दल मान देता है। विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता का कोई न कोई अंश विद्यमान रहता है । आचार्य मणिभद्र का विचार है
पक्षपातो न मे वीरेन द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य, यस्य कार्यः परिग्रहः ।। अर्थात् मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों के प्रति ईर्ष्या-द्वेष है । जो भी वचन तर्कसंगत हो उसे ग्रहण करना चाहिए। महावीर ने 'यही है' को मान्यता नहीं दी, उन्होंने यह भी है' को मान्यता देकर पारस्परिक विरोधों तथा मताग्रहों की लौह-शृंखला को एक ही झटके में तोड़ डाला। उन्होंने सत्य को सापेक्षता में देखा और उसे अभिव्यक्ति दी स्याद्वाद की शैली में। प्रजातंत्र की पूर्ण सफलता अनेकांतदृष्टि में
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