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महावीर की लोकतांत्रिक दृष्टि
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स्थापित कर लेते हैं । अतः प्रजातन्त्र के लिए व्यक्तियों को संग्रह - वृत्ति के स्थान पर त्याग - वृत्ति का महत्त्व दिया जाता है । संग्रह-वृत्ति, वैभव - प्रदर्शन, अहंकार या ममकार का ही प्रतिरूप - साक्षात् रूप है, प्रजातन्त्र में यदि अहंकार की भावना ने डेरा जमा लिया तो यह प्रजातन्त्र तानाशाही का भयावह रूप धारण कर लेता है। जहां ममत्व है, आसक्ति है, अहंकार है, मूर्च्छा है वहीं अधर्म है, वहीं तानाशाही है ।
प्रजातन्त्र में सामाजिक ऐक्य को प्राथमिकता दी जाती है. मानव जाति में ऐक्य की प्रतिष्ठापना प्रजातन्त्र है । यहां स्वामी सेवक, स्त्री-पुरुष को पृथक्-पृथक् कर्त्तव्य का अधिकार नहीं दिये जाते । भेददृष्टि का निराकरण प्रजातन्त्र का मूल है, इसी भेददृष्टि का निराकरण महावीर के उपदेशों का मेरुदण्ड है । महावीर ने जब यह फरमाया--" जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है " ( आचारांग १, ५, ५), तो यहां समत्व का ही उच्च दृष्टान्त प्रस्तुत किया गया है - आत्मा के एकत्व पर ही बल दिया गया है । प्रजातन्त्र में जातीय भेद या वर्ण भेद के लिए कोई स्थान नहीं, रंग व नस्ल की वरिष्ठता के लिए कोई अवकाश नहीं । रंग व नस्ल की निरर्थक वरिष्ठता ने जिस समाज या देश में अपना विष बीज बोया वह कभी नहीं उबरा । सांप्रदायिकता की आकाश बेल जिस देशजाति के विटप पर फैलने लगती है उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है, वह दूसरों की दृष्टि हीन - अनादृत और सावद्य समभी जाती है । महावीर ने अपने समवसरण में किसी जाति, समाज या धर्माव - लम्बी पर कभी पाबन्दी नहीं लगाई। उनका धर्म मानवजाति का धर्म है, किसी सम्प्रदाय या जाति विशेष का धर्म नहीं । वह आत्मा की पवित्र गंगा है जिसमें सब साथ मिलकर निमज्जन कर सकते हैं - वह सभी के पापों-कलुषों का शमन करने वाला धर्म है । महावीर सम्प्रदायातीत हैं, प्रजातन्त्र भी सम्प्रदायातीत होता है, यहां सभी को अपने मतों को, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता रहती है, सभी को अपनी योग्यतानुसार प्रगति करने की सुविधाएं प्राप्त करने के समान अवसर तथा अधिकार प्रदान किये जाते हैं । व्यक्ति में इस प्रकार की आत्मस्वातन्त्र्य की भावना महावीर ने हजारों वर्ष पूर्व जागृत की थी ।
में
प्रजातन्त्र में हम अपने मत को, मान्यता को जितना महत्त्व देते हैं उतना ही दूसरों के मत व मान्यता को महत्त्व देने का वैचारिक औदार्य प्रकट करते हैं । यदि इसके विपरीत करेंगे तो प्रजातन्त्र का गला घुट जाएगा, उसकी हत्या हो जायेगी। यहां तो सभी को अपने विचार प्रस्तुत करने का समान अधिकार है, सभी को अपनी निष्ठानुसार धर्माचरण करने की स्वतंत्रता है । इसी को हम महावीर के अनेकांतवाद के परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं । सत्य किसी एक व्यक्ति या सम्प्रदाय की बपौती नहीं, वह तो सबका है और
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