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अध्यात्म के परिपार्श्व में
लेकिन ऐसी सुख-सुविधाएं अधिकतर शारीरिक आवश्यकताओं-भोजन, वस्त्र की उपलब्धियों तक ही परिसीमित रहती हैं जबकि स्वतन्त्रता का मार्ग कष्ट और असुविधाओं का मार्ग होता है । कष्ट और असुविधाओं के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलकर ही स्वतन्त्रता का, मुक्ति की परम सुख-सुविधाओं का गंतव्य हाथ आता है । परतन्त्रता में हमें घर मिलता है—आवास मिलता है जबकि स्वतन्त्रता में हम घर से मुक्ति पाते हैं । घर व्यक्ति को सीमा में बन्धन में बांधकर रखता है, स्वतन्त्रता में हम घर से बाहर आकर चौराहे पर खड़े होते हैं—दूसरों के साथ रहते हैं या दूसरों को अपने साथ रखते हैं । स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रहे थे तब घरों से बाहर आ गये आफिस सभी की दीवारें ढह गईं। घर से बाहर आना- - घर और परिवार के प्रति ममत्व का विसर्जन कर सभी प्राणियों को अपने परिवार में शामिल 1. कर लेते हैं - "वसुधैव कुटुम्बकम्" के उच्चादर्श का संस्पर्श करने लगते हैं । महावीर की अहिंसा इसी स्वतन्त्रता - प्राणीजगत् की स्वतन्त्रता का ही तो आदर्श प्रस्तुत करती है । महावीर ने कहा है
जब हम नौकरी,
'अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएस संजमो ।'
अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति जो संयम है, वही पूर्ण अहिंसा है । और जब तक जीवन में संयम की कलियां प्रस्फुटित नहीं होंगी तब तक न अहिंसा होगी, न स्वतन्त्रता । संयम की आवश्यकता से विमुख नहीं रहा जा सकता । महावीर नेब्रह्मचर्य व्रत में संयम को जीवन के लिए स्पृहणीय माना है । ब्रह्मचर्य अस्वाद का ही शाश्वत अभ्यास है । अच्छा-बुरा, खट्टा-मीठा, नीरस-सरस, आकर्षक - विकर्षक के बीच समत्व स्थापित करना ही ब्रह्मचर्य है । यहां शरीर का ममत्व स्वतः विसर्जित हो जाता है । इसके द्वारा हम शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग कर अपरिग्रह या परिमाण - परिग्रह की ओर उद्ग्रीव होते हैं । जब तक वैभव का प्रदर्शन किया जाएगा तब तक समाज में ऊंच-नोच की दीवारें ऊंची ही रहेंगी । अगर वैभव की दीवारों को नीचा करेंगे- उन्हें धराशायी करेंगे तो समाज में सभी समानता के धरातल पर खड़ें हो सकते हैं। जहां वैभव होगा वहां एक व्यक्ति दूसरे से पृथक रहेगा, अपने आपको दूसरे से परिसम्पन्न समझने के कारण समाज में विसंगतियां और विद्रूपताएं वातावरण को प्रदूषित करती रहेंगी । वैभव का विसर्जन समाज में एकता की भावना उद्बुद्ध करने वाला है । प्रजातन्त्र में इस प्रकार के विसर्जन को प्राथमिकता देना आवश्यक है । जब तक विसर्जन नहीं होगा - त्याग - वृत्ति नहीं होती तब तक तो हम दूसरों को अपने साथ कैसे ले चलेंगे ? त्याग ही तो हमारे अन्दर वह अनुभूति और चेतना उदित करता है जिसके द्वारा हम दूसरों में जा मिलते हैं; परिग्रह में हम दूसरों से अपने आपको पृथक् रखते हैं, अपरिग्रह में या त्याग - वृत्ति में हम दूसरों के साथ मिलकर उनसे तादात्म्य
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