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________________ अहिंसा की परम्परा और महावीर १४१ 'स्व' देखता है । यही 'स्व' हमें अपने परिजनों से प्रेम करने को बाध्य करता है, इसी 'स्व' का प्रसार अहिंसा है । आत्मौपम्य दृष्टि भी यही है । महावीर इसी आत्मौपम्य दृष्टि के धनी हैं । जैनधर्म का निचोड़ अहिंसा है, अहिंसा ही उसकी आत्मा है, प्राण है । भगवान् महावीर 'आचारांग सूत्र' में कहते हैं - " जब तुम किसी को मारने, सताने अथवा अन्य प्रकार से कष्ट देना चाहते हो तो उसकी जगह अपने को रखकर सोचो । यदि वही व्यवहार तुम्हारे साथ किया जाय तो कैसा लगता ? यदि मानते हो कि तुम्हें अप्रिय लगता तो समझ लो, दूसरे को भी अप्रिय लगेगा । यदि नहीं चाहते कि तुम्हारे साथ कोई ऐसा व्यवहार करे तो तुम भी वैसा मत करो।" इस युग में गांधीजी ने अहिंसा को एक महान् शस्त्र के रूप में प्रयोग कर हमें स्वतन्त्रता का अमृत प्रदान किया । उन्होंने इसे कायर का नहीं वीरता का आभूषण कहा है । अहिंसा के पालन में तलवार चलाने से कहीं अधिक वीरता की जरूरत है । महावीर की अहिंसा महावीरत्व है | अहिंसा की ज्योति उनमें इतनी अधिक थी कि सर्वप्राणियों में अपनी ही आत्मा दिखाई देती थी, सब का दुख उनका अपना दुख बन गया था । उनकी यह अहिंसा शुद्ध शाश्वत धर्म है— " एस धम्मे सुद्धे णितिए सासए समेच्च लोयं खेतण्णेहिं पवेदिते ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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