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________________ १४० अध्यात्म के परिपार्श्व में को भोग के अतिचार से दूर रखना। बुद्ध देव अन्य अवतारों के समान विष्णु भगवान अवतार हैं-"केशव धृत बुद्धशरीर" ताकि पशु-हिंसा को रोक सकें। महावीर ने अहिंसा को व्यापकता प्रदान की। उसे जीवन में प्रत्येक व्यवहार से जोड़कर एक बहुआयामी रूप प्रदान किया। उनकी दृष्टि में किसी का बध करना ही हिंसा नहीं, वरन् दूसरों को सताना, पीड़ा पहुंचाना, मानसिक या शारीरिक रूप से कष्ट पहुंचाना हिंसा के ही रूप हैं। महावीर कहते हैं :----- सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा । पियजीविणों जिविउकामा, सव्वेसि जीवियं पियं ।। अर्थात् किसी को दूसरे के प्राण लेने का अधिकार नहीं, सबको अपने प्राण प्रिय हैं, फिर कोई किसी की हत्या क्यों करे ? अहिंसा द्वारा हृदय में समता का भाव उत्पन्न होता है । समता आने पर राग-द्वेष समाप्त हो जाता है, विषमता नष्ट हो जाती है। प्रेम और मैत्री के दरवाजे खुल जाते हैं । 'सह-अस्तित्व', या 'परस्परोपग्रहोजीवानाम्' के उदार भाव-स्रोत यहां फूटते हैं । 'जीवो और जीने दो' का झरना बहता है। 'तत्त्वार्थ सूत्र' में हिंसा का लक्षण इस प्रकार व्यक्त किया गया है-'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' (७,१३) अर्थात् प्रमादीपन से प्राणों के घात करने को हिंसा कहते हैं। हिंसा दो प्रकार की मानी गई है; (१) द्रव्य हिंसा (२) भाव हिंसा। स्वाभाविक रूप से प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता है तो वहां हिंसा नहीं। या पूर्ण सावधानी बरतने पर यदि कीड़े-मकोड़े कुचले जाते हैं, मर जाते हैं तो भी यह हिंसा नहीं, या जो सूक्ष्म जीव हैं उनकी हिंसा नहीं मानी जा सकती, लेकिन स्थूल जीव की रक्षा करना मनुष्य का परम धर्म है यही 'अहिंसा परमो धर्मः' है। यदि हम किसी को अपनी बात से कष्ट देते हैं, बुरा कहते हैं या लड़ाई-झगड़ा खड़ा करते हैं तो यह भी हिंसा है । मानसिक पीड़ा या हिंसा की रोकथाम के लिए महावीर ने 'अनेकांत' का मंत्र देकर एक वैचारिक सहिष्णुता की मंदाकिनी प्रवाहित की । 'समणसुत्तं' के अहिंसा सूत्र में कहा गया है कि ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। इतना जानना ही पर्याप्त है कि अहिंसा मूलक समता ही धर्म है अथवा यही अहिंसा का विज्ञान है । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं । इसलिए प्राणबध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करे । जैसे तुम्हें दुख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब जीवों को दुख प्रिय नहीं है-ऐसा जानकर, पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक आत्मौपम्य दृष्टि से सब पर दया करो।। याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी को ब्रह्मविद्या के विषय में उपदेश देते हुए कहते हैं कि पति पत्नी को इसलिए प्रेम करना चाहता है कि वह उसमें अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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