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अहिंसा की परम्परा और महावीर
१३९ अन्याय, अत्याचार, अविवेक और हिंसा को वह नहीं अपना सकते थे, अतः वैवाहिक वेष-भूषा उतार फेंकी, चारों ओर हलचल' मच गई और बिना किसी के उपदेश सुने उन्होंने गिरिनार पर्वत पर जाकर दीक्षा प्राप्त की तथा ५४ दिन की तपश्चर्या के उपरान्त केवलज्ञान प्राप्त किया।
कृष्ण ने अहिंसा को यज्ञ में महत्त्वपूर्ण माना और कहा कि उत्तम यज्ञ वह है जहां मनुष्य परोपकार पर ध्यान दे, अपने जीवन को परोपकार में लगाये और यज्ञ में कभी जीव-हत्या न करे। अहिंसा उस यज्ञ की दक्षिणा है, ऋजु-भाव उस यज्ञ की दक्षिणा है, दान-सत्य उस यज्ञ की दक्षिणा है। श्री कृष्ण ने द्रव्य यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ को अधिक महत्त्व दिया है, क्योंकि सब प्रकार के कर्मों का पर्यवसान ज्ञान में होता है। ज्ञान रूपी अग्नि सब कर्मों को जला डालती है, जैसे अग्नि सकल ईंधन को जला देती है। इस संसार में सचमुच ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ नहीं-"न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते" (गीता ४,३८)। बुद्धदेव ने यज्ञ में जीवों की हिंसा को कभी अच्छा नहीं समझा । एक स्थान पर उन्होंने कहा, "जिस यज्ञ में प्राणियों की हिंसा नहीं होती, भेड़, बकरे, गाय, बैल आदि प्राणी मारे नहीं जाते और जो सर्वदा लोगों को अच्छा लगता है, उसमें सन्त-महर्षि जाया करते हैं। इसलिए सुज्ञ पुरुष को ऐसा यज्ञ करना चाहिए।" बुद्ध से ढाई सौ वर्ष पूर्व तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने अपने चातुर्याम में अहिंसा को महत्त्व दिया। 'स्थानांगसूत्र' में चातुर्याम का निम्न रूप में वर्णन प्राप्त होता है :
(१) अहिंसा-सभी प्रकार के प्राणघात से विरति । (२) सत्य-सभी प्रकार के असत्य से विरति । (३) अचौर्य-सभी प्रकार के अदत्तादान (चोरी) से विरति । (४) अपरिग्रह-सभी प्रकार के बहिर्धा-आदान से विरति ।
यज्ञों में पशु-हिंसा कब से शुरू हुई, अभी इस पर अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सका लेकिन यह कहा जाता है कि 'अर्यष्टव्यम्' सूत्र में 'अज' के अर्थ को लेकर नारद और पर्वत में मतभेद हो गया। एक कहता था 'पुराना जो', दूसरा कहता था 'बकरा' । अन्त में झगड़ा समाप्त करते हुए राजा वसु ने अपना मत 'बकरा' के पक्ष में दिया तभी से यज्ञों में--पशु बलि और बाद में नर बलि (नरमेघ) तक दी जाने लगी। पार्श्वनाथ का युग हिंसा का युग था । सुन्दरतम पशुओं की बलि अच्छी समझी जाती थी। महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर दोनों समकालीन थे। दोनों ने अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व दिया । उनके 'चार आर्य सत्य' और 'अष्टांगिक मार्ग' में अहिंसा का प्रतिपादन हुआ है । 'सम्यक् कर्मात' में जोर दिया गया है कि प्राणि-हिंसा न करना, जो दिया न गया हो उसे नहीं लेना, दुराचार से बचना और अपने
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