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________________ तीर्थंकरों की परम्परा और महावीर १३५ बारात जूनागढ़ पहुंची, तो उन्हें सैकड़ों पशुओं की करुण चीत्कार सुनायी दी। वह व्याकुल हो उठे। उन्होंने सारथी से इसका कारण पूछा, तो सारथी ने कहा कि उनका मांस अतिथियों के काम आएगा। फिर क्या था ! नेमिनाथ ने विवाह से साफ इनकार कर दिया और विवाह की वेशभूषा उतार फेंकी तथा गिरनार पर्वत पर जाकर जिन-दीक्षा ले ली। तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ थे। पार्श्वनाथ की मूर्ति के ऊपर सर्प का फण बनाया जाता है, क्योंकि, उनके जीवन में सों का विशेष महत्त्व था। उन्होंने एक बार एक साधु को पंचाग्नि तप करते देखा और जलती हुई लकड़ी में सांप के जोड़े पर उनकी दृष्टि पड़ी, जिन्हें उनके आग्रह पर लकड़ी काटकर बचाया गया। बाद में पार्श्वनाथ संन्यस्त हो गए। उन्होंने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया-(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) अपरिग्रह । महावीर और उनका युग __पार्श्वनाथ के तीन सौ वर्ष बाद महावीर उत्पन्न हुए और उन्होंने चातुर्याम में ब्रह्मचर्य को और शामिल कर दिया। इस प्रकार महावीर ने पांच अणुव्रतों का उपदेश दिया; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । महावीर जैनधर्म के २४ वें तीर्थंकर हैं और अन्तिम हैं। उनका युग धर्मांधता से भरा था । आर्थिक विषमता और वर्ग-भेद बढ़ रहा था। धर्म में क्रियाकांड फैला हुआ था, पशुबलि-नरबलि का रिवाज था। स्त्रियों को समाज में हीन और भोग-सामग्री समझा जाता था। दास-प्रथा फैली थी। महावीर की अवस्था जैसे बढ़ती गयी, उनका बुद्धि-वैभव भी बढ़ने लगा। समाज की दुर्दशा देखकर वह चिन्तित रहने लगे। प्रभुता और ऐश्वर्व में उनका दम घुटने लगा और धीरे-धीरे उनमें वैराग्यभाव उत्पन्न होने लगा। कहते हैं, माता-पिता ने उनकी यह अवस्था देखकर कलिंग नरेश की परम सुंदरी कन्या यशोदा से विवाह कर दिया, दूसरी परम्परा उन्हें अविवाहित मानती है। माता-पिता के निधनोपरांत वह भाई नन्दिवर्धन से आज्ञा लेकर प्रवजित हो गए, जिन-दीक्षा ले ली। ३० वर्ष की भरी जवानी में ईसापूर्व ५६९ में वह दीक्षित हुए। दीक्षार्थ जाते हुए महावीर के चरणों पर हरिकेशी चांडाल गिर पड़ा, जिसे सस्नेह अपने गले लगाकर महावीर ने मानव-एकता का अपना मिशन शुरू किया, नहीं तो उस युग में अछूत चाण्डाल की छाया से भी लोग दूर रहते थे। महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक घोर तप और एकांत चिंतन किया। इस अवधि में कई-एक घटनाएं उनके जीवन में घटित हुई। प्रथम देशना महावीर ने अपनी प्रथम देशना में कहा-उप्पणेइ वा विणस्सेइ वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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