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________________ अध्यात्म के परिसार्श्व में सुनकर आत्मसाधना की। अगले जन्म में वज्रनाभ नाम के चक्रवर्ती राजा बने और जन्मांतर में तीर्थंकर ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में पिता नाभिराय व माता मरुदेवी के यहां हुआ। ऋषभदेव के दो पत्नियां थीं-सुनन्दा और सुमंगला । सुनन्दा के एक पुत्र बाहुबली और पुत्री सुंदरी थे। इनके पुत्रों की संख्या ९८ और ९९ बतायी जाती है। सुमंगला के पुत्र का नाम भरत और पुत्री का नाम ब्राह्मी था। ऋषभ ने ब्राह्मी को लिपि और सुंदरी को गणित विद्या सिखायी। भरत कलाओं के ज्ञाता थे और बाहुबली को प्राणी-लक्षण का परिज्ञान था। ऋषभ ने लोगों को कर्म की प्रेरणा दी तथा कर्म-व्यवस्था को छह भागों में विभाजित किया-(१) असि, (२) मसि, (३) कृषि, (४) विद्या, (५) शिल्प, (६) वाणिज्य । उन्होंने दंड-व्यव था का भी विधान किया । सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था करने के बाद वह संन्यासी बन गये तथा घोर-कठोर साधना में लीन हो गए। उनका उत्तराधिकार भरत ने संभाला, बाहुबली पोदनपुर के राजा बन गए । भरत ने अपने शासन का विस्तार कर अनेक राज्यों को अधीनस्थ बना लिया, परन्तु बाहुबली ने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की। इस पर दोनों भाइयों में एक विलक्षण युद्ध हुआ(१) एक दूसरे को अपलक देखने का, (२) एक दूसरे पर जल उछालने का, (३) मल्लयुद्ध । इसमें बाहुबली विजयी हुए और बाद में उन्होंने अपना राज्य, जो भाइयों में कलह का कारण था, भरत को दे दिया और संन्यस्त हो गए तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानमग्न रहकर बहुत समय तक तप करते रहे । भरत की क्षमायाचना पर उनके मन की शल्य निकली और वह केवलज्ञानी हो गए। तीर्थंकर केवल क्षत्रियकुल में २४ तीर्थंकरों में केवल ५ तीर्थंकरों ने विवाह नहीं किया था, वे आजन्म ब्रह्मचारी रहे । वे हैं-वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर । वैसे इस मत में दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में कुछ विरोध है । तीर्थंकर केवल क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होते हैं। सभी तीर्थंकर राजकुल में उत्पन्न हुए और अपने पूर्व जन्म के तीर्थंकरत्व का स्मरण कर, अथवा अतिभोग और आसक्ति देखकर उनमें वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे संन्यस्त हो गए या फिर किसी मुनि के ज्ञानोपदेश तथा घोर हिसा के कारण उन्होंने जिन-दीक्षा ली। नेमिनाथ बाईसवें तीर्थंकर थे। पशु-हिंसा की कल्पना कर ही वह संन्यस्त हो गए। नेमिनाथ वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई थे । कृष्ण और नेमिनाथ की जीवन-घटनाओं का काफी वर्णन मिलता है। नेमिनाथ की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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