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तीर्थकरों की परम्परा और महावीर
'तीर्थंकर' शब्द तीर्थ से बना है। तीर्थ का शब्दार्थ है तट, घाट, फोर्ड । जहां नदी इतनी कम गहरी हो कि आसानी से उसे पार कर सकें, उसे घाट कहते हैं। जहां नौका द्वारा नदी या झील को एक किनारे से दूसरे किनारे तक पार कर सकें, उसे भी घाट कहते हैं। दूसरे, 'तीर्थ' पावन नदी में स्नान करने, धर्म-स्थानों की यात्रा करने को भी तीर्थ कहते हैं। इसके द्वारा भी मनुष्य मोक्ष-प्राप्ति की कामना करता है। ये मोक्ष-प्राप्ति के साधन हैं । धार्मिक दृष्टि से जो संसार-सागर या जो ऐसे धर्मतीर्थ का कर्तानिर्माता हो, उसे 'तीर्थंकर' कहा जाता है
तीर्थं करोति इति तीर्थंकर ---संसार-सागर को पार करानेवाले या पार कराने के लिए धर्मतीर्थ की स्थापना करनेवाले । इस प्रकार यह शब्द जैन धर्म में बहुत रूढ़ हो गया है और वहां तीर्थंकर को मोक्षमार्ग का प्रवर्तक महापुरुष माना जाता है ।
तीर्थकर आत्मज्ञान का, आत्मविद्या का, आत्मविश्वास का पर्याय, गहरा व्यंजनात्मक शब्द है। तीर्थंकर शब्द का प्रयोग महावीर के युग में अन्य सम्प्रदायों में भी प्रचलित था। आजकल तीर्थंकर शब्द केवल जैनधर्म से जुड़ा है, अन्य किसी धर्म में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता।
भारतवर्ष में तीर्थंकरों की संख्या चौबीस है और इनकी परम्परा अति प्राचीन है । वैदिक पद्मपुराण (५/१४) में कहा गया है
अस्मिन्वय भारते वर्षे जन्म वै श्रावके कुले तपसा युक्तमात्मानं केशोत्पाटन पूर्वकम् तीर्थंकराश्चतुर्विशत्तथातैस्तु पुरस्कृतम् छायाकृतं फणीन्द्रेण ध्यानमात्र प्रदेशिकम् ।
___ अर्थात-इस भारतवर्ष में २४ तीर्थंकर श्रावक कुल (क्षत्रिय) में उत्पन्न हुए। उन्होंने केशलुंचनपूर्वक तपस्या में अपने आपको युक्त किया । उन्होंने इस निर्ग्रन्थ दिगम्बर पद को पुरस्कृत किया। जब-जब वे ध्यान में लीन होते थे, फणींद्र नागराज उनके ऊपर छाया करते थे।
तीर्थंकरों में आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ और अन्तिम तीर्थंकर महावीर हैं । तीर्थकरों की कुल संख्या चौबीस हैं
ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभनाथ, सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभनाथ, पुष्पदंतनाथ, शीतलनाथ, श्रेयासनाथ,
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