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सामाजिक एकता
दोनों महाज्ञानी, समाजोद्धारक मनुष्यों की समानता और एकता पर बल देते थे । भगवान महावीर ने चाण्डाल हरिकेशी को गले लगाकर अस्पृश्य का, अन्त्यज का सप्रेम स्पर्श करके वैसा ही व्यवहार किया जैसा राम ने केवट के साथ किया था । महावीर ने दासी - क्रीतदासी के रूप में चन्दना का भोजन स्वीकार करके उसे वही आदर दिया जो राम ने भीलिनी शबरी को या कृष्ण ने विदुर को दिया था । पैगम्बर मोहम्मद ने तो स्पष्टत घोषणा की कि जैसा तुम खाओ वैसा अपने गुलाम या नौकर को भी खाने-पहनने को दो । उसकी सामर्थ्य से अधिक उससे काम न लो, अगर अधिक काम हो तो उसे सहारा दो, उसकी मदद करो। उन्होंने अमीर-गरीब, उच्च-निम्न, छोटेबड़े के भेद-भाव की दीवार गिरा दी और समाज के सब मनुष्यों को सभी वर्गों, सम्प्रदायों और फिरकों के लोगों को एक ही प्रेम-सूत्र में एकता की, समानता की भावना में बांध दिया। तभी तो डॉ० इकबाल ने कहा है
अध्यात्म के परिपार्श्व में
एक ही सफ में खड़े हो गये महमूदो अयाज । न कोई बन्दा रहा और न कोई बन्दा नवाज ॥ १ ॥
आज जो जातीय भेद-भाव और साम्प्रदायिकता की विषाक्त भावना समाज में देखी जाती है उससे देश का कभी हित नहीं होगा । जातीय एवं सामाजिक एकता से जाति का, देश का समुद्धार होगा, राष्ट्रीय एकता की जड़ें मजबूत होंगी । भगवान महावीर ने अपनी धर्म ध्वजा के नीचे विभिन्न मतावलम्बियों, सम्प्रदायों, वर्गों को लाकर एक ही मंच पर खड़ा कर दिया । सभी धर्मों के लोग उनके 'समवसरण' में एक स्थान पर बैठकर दिव्यवाणी से आनन्दाप्यातित होते थे- मानो उनके प्रताप ने सामाजिक विषमता को मूलोछिन्न कर दिया - तुलसी की पंक्ति में राम स्थान पर 'वीर' रखकर कहा जा सकता है - 'वीर प्रताप विषमता खोई ।' महावीर के समान मोहम्मद ने समाज में एकता और भाईचारे का सद्भावनापूर्ण वातावरण तैयार किया । उनके साथ - एक ही पंक्ति में खड़े होकर सभी तो नमाज पढ़ते थे, उन्होंने दास को दास नहीं, मनुष्य समझकर उसका आदर किया । उनके इस प्रभाव के कारण दास प्रथा धीरे-धीरे विलीन होने लगी और लोग दासों को आजाद करके उनके साथ अपनी लड़की का विवाह भी करने लगे । उन्होंने कर्म की महानता और पवित्रता का पाठ लोगों को सिखाया । वह स्वयं अपने कपड़ों में पेबंद लगाते, जूता ठीक करते, घर में झाडू लगाते, ऊंट की देखभाल करते । जब मस्जिद बनाई गई तो उन्होंने तरह काम किया। उन्होंने उजरत लेकर मक्का वालों की बकरियां चराई
स्वयं मजदूरों की
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