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महावीर और मोहम्मद
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थीं। एक हदीस में उन्होंने कर्म की महानता (Dignity of Labour) प्रकट करते हुए फरमाया "कोई व्यक्ति उससे बेहतर रोटी नहीं खाता जो वह अपने हाथ से काम करके खाता है" (बुखारी ३४-१५)। उन्होंने अन्यत्र (मुसलिम हदीस) फरमाया कि "वह व्यक्ति जन्नत में दाखिल न होगा जिसके शर (अत्याचार) से उसका पड़ोसी सुरक्षित न रहे।" इस प्रकार उन्होंने सभी के साथ समान व्यवहार करने का आदेश दिया और यही बात भगवान महावीर ने भी कही "मित्ती मे सव्व भूएसु" मेरी सबसे मैत्री है। सभी प्राणियों को समान मानना चाहिए चाहे वह शत्रु हो या मित्र "समया सव्व भूएसु सत्तु मित्तेषु वा जगे।” (उत्तराध्ययन सूत्र १९-२५) अपरिग्रह
भगवान महावीर, जो जीवन पर्यंत निर्वसन अनिकेतन रहे, का जीवन तो अपरिग्रह का मूर्तरूप है । उनके दिगम्बरत्व या नग्नत्व के पीछे यह दर्शन है कि 'कम से कम' वस्तुओं का संग्रह किया जाये यानी "सादा-जीवन उच्च विचार"। महावीर ने अधिक बल दिया है धन के अपरिग्रह पर, अस्तेय पर । उन्होंने यह अवश्य माना है कि व्यवहार में, जीवन यापन के लिए धन आवश्यक है । उसके उपार्जन पर नहीं, अनपेक्षित संग्रह पर, जमा करने या 'होर्ड' करने पर घोर आपत्ति व्यक्त की और उसे महा अन्याय तथा विषवत् माना है
वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमामि सोह अदुवा परत्था । दीवप्पणंठेव अणंत मोहे, न माइय दट्ठ मद्दठुमेव ॥
-(उत्तराध्ययन सूत्र, ४ अध्याय) ___ यदि गहराई से विचार किया जाये तो स्पष्ट विदित होगा कि न्यायोचित और शुद्ध निष्कपट रीति से शुद्ध धन एकत्रित करके कोई धनाढ्य नहीं बन सकता। जाने-अनजाने रूप में कुछ ऐसे अनुचित, असंगत और न्यायविहीन साधन अपनाए जाते हैं जिससे धन सैलाब के पानी की तरह बढ़ता है; एकत्रित होता है। नदी में सैलाब केवल उस वर्षाजल से नहीं आता जो नदी पर पड़ता है वरन् उस जल से आता है जो यत्रतत्र के छोटे-बड़े गन्दे नालों से प्रवाहित होता हुआ नदी में गिरता
शुद्धैर्धनविवर्धन्ते कदापि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः ।।
--(आत्मानुशासन-३५) भगवान महावीर ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों के परिपालन पर सर्वाधिक बल दिया। वास्तव में इनके
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