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नमाज : आस्था और ध्यान
अत्यन्त जरूरी है। युवाचार्य महाप्रज्ञ ने ध्यान को अति सरल भाषा में इस प्रकार व्यक्त किया है--बछड़ा आंगन में उत्पात मचा रहा है। उसे पकड़कर एक खूटे से बांध दिया तो वह ज्यादा कूद-फांद नहीं कर पाएगा। इसका नाम है 'धारणा' । वह बछड़ा आस-पास में ही चक्कर लगाएगा, वह थक जाएगा, तब वहीं बैठ जाएगा। यह है 'ध्यान ।' 'ध्यान' का मतलब है चित्त को एक स्थान पर टिका देना । मन को एक स्थान पर टिकाया और मन लम्बे समय तक उसी विषय पर टिका रहा, मन शान्त हो गया, यही है ध्यान । ध्यान शुरू होता है चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा से । किसी एक चैतन्य केन्द्र पर ध्यान शुरू किया, यह 'धारणा' है। आधा घंटा तक उसी केन्द्र पर चित्त केन्द्रित रहता है तो वह 'ध्यान' हो गया । जब हम ध्यान करते हैं तब प्रारम्भ में धारणा होती है । एक बिन्दु पर धारणा होते-होते चित्त उस पर एकाग्र बन जाता है, तब ध्यान हो जाता है । यद्यपि ध्यान का ही एक अंग है धारणा । जब धारणा पुष्ट हो जाती है तब वह ध्यान में परिणत हो जाती है। एक और रूपक से युवाचार्यजी ने धारणा-ध्यान को समझाया है-दूध में जामन दिया, गाढ़ा बनकर दही हो गया-यह ध्यान है । दूध में चंचलता है, जामन धारणा है, दही ध्यान है।' ध्यान को पकड़ने के लिए, उसे बांधने के लिए जप, स्मरण, माला, तस्बीह का सहारा भी लिया जाता है । प्रेक्षाध्यान में जप का विशेष महत्त्व है । इस्लाम में तस्बीह फेरना, अल्लाह का जिक्र' करना भी इबादत में शामिल है। नमाज मन की एकाग्रता के बिना नहीं हो सकती। इन्द्रिय-निग्रह ध्यान में आवश्यक है। साधक के लिए ध्यान का विशेष महत्त्व
सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥
(समणसुत्तं, ४८४) अर्थात् जैसे मनुष्य के शरीर में सिर उत्कृष्ट है, वृक्ष में जड़ मुख्य है, उसी प्रकार साधु-धर्म में ध्यान मुख्य है । चित्त को एकाग्र करना ध्यान है । भावना, अनुप्रेक्षा, चिन्ता चित्त की चंचलता के ही तीन रूप हैं।
नमाज पढ़ते समय नमाजी अपने आस-पास से, अपने परिवेश से कट जाता है, एकमात्र ध्यान नमाज में रहता है। हजरत अली (चौथे खलीफा) के विषय में कहा जाता है कि उनके शरीर से तीर-बरछी आदि तब निकालते थे जब वे नमाज पढ़ने में विलीन हो जाते थे। अरबी भाषा में जिसे १. भेद में छिपा अभेद-युवाचार्य महाप्रज्ञ, पृ० ११० २. वही, पृ० १११ ३. वही, पृ० ११२
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