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अध्यात्म के परिपार्श्व में
कछु दिन भोजनु बारि बतासा, किए कठिन कछु दिन उपबासा । पुनि परिहरे सुखानेउ परना, उमहि नामु जब भयउ अपरना ।
(रामचरितमानस बालकाण्ड ७४) उपवास मानसिक, वाचिक और शारीरिक शुद्धि का आधार है। इसका लौकिक तथा आध्यात्मिक महत्त्व है । इस्लाम निवृत्तिमार्गी धर्म है, जैन धर्म भी निवृत्तिमार्गी है । इस्लाम में रोजे द्वारा मानसिक, वाचिक, शारीरिक शुद्धि प्राप्त होती है और बन्दा खुदा के समीप पहुंचने का प्रयत्न करता है, क्योंकि खुदा का कहना है कि "रोजा मेरे लिए है और मैं ही उसका बदला दूंगा।" जैन दर्शन में जो तप-अनशन तप कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाता है रोजा रखने से भी व्यक्ति पापों-गुनाहों से मुक्ति पाता है। इन्द्रियविषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्मा को भावित करता है उसी को तपधर्म होता है
विसयकसाय-विणिग्गहभावं, काऊण झाणसज्झाए। जो भावई अप्पाणं, तस्स त्वं होदि णियमेण ।।
(समणसुत्तं, १०२) 'तिरुक्कूल' के परिच्छेद-२७ में भी 'तप' का वर्णन किया गया है। जो जैन दर्शन के सन्निकट है---शान्तिपूर्वक दुःख सहन करना और जीव-हिंसा न करना यही तप का सार है । जैनदर्शन ने दस लक्षणों में सर्वोपरि माना है (उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य) । "कुरल" में भी क्षमा की महिमा का गान है। उपवास करके तपश्चर्या करना महान है लेकिन निन्दा करने वालों को क्षमा करना और महान है (परिच्छेद १६)।
रमजान आत्मशुद्धि का, आत्मपरिशोधन का महीना है। इसका आगमन प्रत्येक मुसलमान के लिए स्वागताई है। जब रमजान समाप्त हो जाता है तो शव्वाल माह की प्रथम तिथि को 'ईदुल-फितर' का त्यौहार मनाया जाता है। यह प्रेम का, खुशी का, सद्भाव का पर्व है । समाज में सब एक दूसरे के गले मिलते हैं, एक दूसरे को मुबारकबाद देते हैं। ईदगाह या जामा-मस्जिद में जाकर सामूहिक दोकाना नमाज--शुक्रिए के तौर पर पढ़ते हैं। इस दिन पारस्परिक द्वेषभाव भूल कर सब भाईचारे का, मैत्री का व्यवहार करते हैं, इस दृश्य को दसलक्षण/पर्युषण/सवंत्सरि के पर्व का सदृश देखा जाता है । ८-१० दिनों तक संयमित जीवन बिताते हुए शास्त्रों का अध्ययन कर आत्मपरिशोध/आत्मविरेचन करते हैं और सब एक स्वर में एक-दूसरे के
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