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रमजान : जैन दर्शन के आलोक में
उपवास तथा शास्त्र अध्ययन द्वारा तन-मन साफ रखा जाता है। वस्तुतः इन्द्रियों का उपशमन उपवास कहलाता है
उवसणो अक्खाणं, उववासो वण्णिदो समासेण ।
तम्हा भुंजंता वि य, जिदिदिया होंति उववासा ॥
अर्थात् इन्द्रियों के उपशमन को उपवास कहते हैं। जितेन्द्रिय साधु भोजन करते हुए उपवासी होते हैं । दूध, दही, घी आदि पौष्टिक भोजन-पान का त्याग "रस-परित्याग" कहलाता है। जैन दर्शन में कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन, अनशन, सव "तप" हैं । भक्तजन यही तप करते हैं । तप मुख्यत: दो प्रकार का है (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर। दोनों के छ:-छः प्रकार हैं । कर्मों की निर्जरा के लिए आहार का त्याग "अनशन तप" है । और अनशन तप वह है जिससे मन में अमंगल की चिन्ता उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि न हो तथा मन-वचन काया रूप योगों की हानि न हो यानी अपनी सामर्थ्य-शक्ति के अनुसार तप करना चाहिए। इस्लाम धर्म में रोजे की जो महत्ता है- तन-मन शुद्ध करना, वैसी ही जैन दर्शन में व्यक्त हुई है । आत्मा को शुद्ध. पवित्र करना, शरीर को स्वस्थ करना, इसे आराम देना उपवास है । इसीलिए महावीर ने विष-द्रव्य को त्यागने का उपदेश दिया
रसापगामं न निसेवियव्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं ।
दित्तं च कामा समभिदवंति, दुर्म जहा साउफलं व पक्खी ।।
रसों का अधिक सेवन करना रोगी बनना हैं, इसलिए दूध, दही, मक्खन, चीनी आदि का त्याग अच्छा है । रस विकार जन्य है । दृष्टि, कामवासना पैदा करने वाले हैं, पीड़ित करने वाले हैं जैसे मीठे फल वाले पेड़ को पक्षी पीड़ित करते हैं । उपवास से दो अर्थ-ध्वनि निकलती है (१) भोजन न करना (२) ईश्वर के समीप रहना । परमात्मा की शक्ति, आनन्द, ज्ञान, प्रेम जागृत होता है। उपवास से सभी धर्मों में दर्शनों में ईश्वर की प्राप्ति होती है। "गीता" (अध्याय १६) में वाणी-तप, मन-तप, शरीर-तप का वर्णन किया है । पार्वती ने अपने पति शिवजी को प्राप्त करने के लिए वर्षों तक तप किया, यहां तक कि कन्द, मूल, फल, साग का ही सेवन किया। इनका त्याग कर फिर हवा-पानी के सहारे तप किया और अन्त में पति · चरणों में ऐसा अनुराग उत्पन्न हुआ कि स्वयं को भूल गई---
नित नव चरण उपज अनुरागा, विसरी देह तपहिं मनु लागा। संबत सहसा मूल फल खाए सागु खाई सत बरष गवाएं।
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